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प्रशमरति
समानार्थक हैं व परिणाम, निसर्ग, स्वभाव-ये तीन एकार्थ हैं ॥२२३॥ एतत्सम्यग्दर्शनमनधिगमविपर्ययौ तु मिथ्यात्वम् । ज्ञानमथ पञ्चभेदं तत् प्रत्यक्षं परोक्षं च ॥२२४॥
अर्थ : यह सम्यग्दर्शन है । अनधिगम [तत्त्वार्थ की अश्रद्धा] और विपर्यय [विपरीत श्रद्धा] मिथ्यात्व है। ज्ञान के पाँच भेद हैं । उसके प्रकार हैं : प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ॥२२४॥ तत्र परोक्षं द्विविधं श्रुतमाभिनिबोधिकं च विज्ञेयम् । प्रत्यक्षं चावधिमन:पर्यायौ केवलं चेति ॥२२५॥
अर्थ : उसमें (पाँच ज्ञान में) परोक्षज्ञान जिसे दो तरह का जानना चाहिए । श्रुतज्ञान एवं आभिनिबोधिक ज्ञान । और अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान-इन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान जानना चाहिए ॥२२५॥ एषामुत्तरभेदविषयादिभिर्भवति विस्तराधिगमः । एकादीन्येकस्मिन् भाज्यानि त्वाचतुर्थ्य इति ॥२२६॥
अर्थ : इन ज्ञानों के उत्तर भेद एवं विषय वगैरह से विस्तृत ज्ञान होता है। एक जीव में एक से लेकर चार ज्ञान तक के विभाग करने चाहिए ॥२२६।।