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प्रशमरति
तेजयुक्त [शक्तियुक्त] ध्यानाग्नि होती है। चूंकि उसमें तप, प्रशम और संवर को भी डाला गया होता है । उससे ध्यानानल की शक्ति बढ़ती है ॥२६४॥ क्षपकश्रेणिमुगपतः स समर्थः सर्वकर्मिणां कर्म । क्षपयितुमेको यदि कर्मसंक्रमः स्यात् परकृतस्य ॥२६५॥ ___ अर्थ : क्षपकश्रेणि पर चढ़ी हुई वह आत्मा, यदि दूसरे जीवों के द्वारा बांधे गये कर्मो का [स्वयं में] संक्रमण हो सकता हो तो, अकेले ही सभी जीवों के कर्मों का क्षय करने में समर्थ होती है ॥२६५॥ परकृतकर्माणि यस्मान्नाक्रामति संक्रमो विभागो वा । तस्मात् सत्त्वानां कर्म यस्य यत्तेन तद्वद्यम् ॥२६६॥
अर्थ : परन्तु एक जीव के कर्म दूसरे जीव के कर्मों में न तो सम्पूर्णता संक्रमित होते हैं न ही एकाध अंश-हिस्सा उसमें मिल सकता है। अतः जो जीव कर्म बांधता है वही जीव कर्म भुगतता है ॥२६६॥ मस्तकसूचिविनाशात्तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः। तद्वत् कर्मविनाशो हि मोहनीयक्षये नित्यम् ॥२६७॥
अर्थ : तालवृक्ष को चोटी पर जो सूचि-शाखा ऊगी हुई रहती है, उस शाखा का नाश करने से जैसे तालवृक्ष का नाश अवश्यमेव हो जाता है, उसी भांति मोहनीयकर्म का क्षय होते