Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 71
________________ प्रशमरति संपदाएँ मोक्ष के साधन रूप हैं । उनमें से एक के भी अभाव में (अनुपस्थिति में ) मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती है ॥२३० ॥ ७० पूर्वद्वयसम्पद्यपि तेषां भजनीयमुत्तरं भवति । पूर्वद्वयलाभः पुनरुत्तरलाभे भवति सिद्धः ॥२३१॥ अर्थ : प्रथम दो [सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान] होने पर भी सम्यग्चारित्र की भजना ( हो भी, न भी हो) होती है | चारित्र हो भी सकता है...नहीं भो हो सकता है, परन्तु सम्यग्चारित्र के होने पर तो सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान होते ही हैं ||२३१ ॥ धर्मावश्यकयोगेषु भावितात्मा प्रमादपरिवर्जी । सम्यक्त्वज्ञानचारित्राणामाराधको भवति ॥ २३२ ॥ अर्थ : धर्म में [क्षमा वगैरह ] एवं आवश्यक क्रियाओं में [प्रतिक्रमण वगैरह ] श्रद्धाशील व अप्रमादी आत्मा सम्यग्दर्शन-ज्ञान एवं चारित्र का आराधक बनता है ॥२३२॥ आराधनाश्च तेषां तिस्त्रस्तु जघन्यमध्यमोत्कृष्टाः । जन्मभिरष्टत्र्येकैः सिध्यन्त्याराधकास्तासाम् ॥२३३॥ अर्थ : उनकी जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट यों तीन प्रकार की आराधना [ सम्यग्दर्शन वगैरह की ] होती है । उसमें क्रमशः आठ, तीन एवं एक भव में आराधक सिद्धि को प्राप्त करते हैं । मोक्ष को प्राप्त करते हैं ||२३३ ||

Loading...

Page Navigation
1 ... 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98