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प्रशमरति
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तासामाराधनतत्परेण तेष्वेव भवति यतितव्यम् । यतिना तत्परजिनभक्त्युपग्रहसमाधिकरणेन ॥२३४॥ अर्थ : सम्यग्दर्शन वगैरह की आराधना में तत्पर मुनि को चाहिए कि वे उसी में तत्पर रहे । इसके लिए जिनेश्वरभक्ति, साधुसेवा जीव समाधि वगैरह में उसे सदा रत रहना चाहिए ॥ २३४॥ स्वगुणाभ्यासरतमतेः परवृत्तान्तान्धमूकबधिरस्य । मदमदनमोहमत्सररोषविषादैरधृष्यस्य ॥ २३५ ॥
अर्थ : जिसकी बुद्धि आत्मगुणों के अभ्यास में रत है... जो दूसरों की बातों में अंध-मूक एवं बधिर बना रहता है, जो गर्व, काम, मोह मत्सर, रोष एवं विषाद से अभिभूत नहीं बनता है ॥२३५॥
प्रशमाव्याबाधसुखाभिकांक्षिणः सुस्थितस्य सद्धर्मे । तस्य किमौपम्यं स्यात् सदेवमनुजेऽपि लोकेऽस्मिन् ॥२३६॥
अर्थ : जो प्रशमसुख एवं अव्याबाध सुख का इच्छुक है...जो सद्धर्म में सुदृढ है वैसे आराधक को, देव एवं मनुष्य के इस लोक में किसकी उपमा दी जा सकती है ? ॥ २३६ ॥ स्वर्गसुखानि परोक्षाण्यत्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम् । प्रत्यक्षं प्रशमसुखं न परवशं न व्ययप्राप्तम् ॥२३७॥
अर्थ : स्वर्ग के सुख परोक्ष हैं और मोक्ष का सुख तो