Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 72
________________ प्रशमरति ७१ तासामाराधनतत्परेण तेष्वेव भवति यतितव्यम् । यतिना तत्परजिनभक्त्युपग्रहसमाधिकरणेन ॥२३४॥ अर्थ : सम्यग्दर्शन वगैरह की आराधना में तत्पर मुनि को चाहिए कि वे उसी में तत्पर रहे । इसके लिए जिनेश्वरभक्ति, साधुसेवा जीव समाधि वगैरह में उसे सदा रत रहना चाहिए ॥ २३४॥ स्वगुणाभ्यासरतमतेः परवृत्तान्तान्धमूकबधिरस्य । मदमदनमोहमत्सररोषविषादैरधृष्यस्य ॥ २३५ ॥ अर्थ : जिसकी बुद्धि आत्मगुणों के अभ्यास में रत है... जो दूसरों की बातों में अंध-मूक एवं बधिर बना रहता है, जो गर्व, काम, मोह मत्सर, रोष एवं विषाद से अभिभूत नहीं बनता है ॥२३५॥ प्रशमाव्याबाधसुखाभिकांक्षिणः सुस्थितस्य सद्धर्मे । तस्य किमौपम्यं स्यात् सदेवमनुजेऽपि लोकेऽस्मिन् ॥२३६॥ अर्थ : जो प्रशमसुख एवं अव्याबाध सुख का इच्छुक है...जो सद्धर्म में सुदृढ है वैसे आराधक को, देव एवं मनुष्य के इस लोक में किसकी उपमा दी जा सकती है ? ॥ २३६ ॥ स्वर्गसुखानि परोक्षाण्यत्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम् । प्रत्यक्षं प्रशमसुखं न परवशं न व्ययप्राप्तम् ॥२३७॥ अर्थ : स्वर्ग के सुख परोक्ष हैं और मोक्ष का सुख तो

Loading...

Page Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98