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प्रशमरति
७७ अपेक्षया विशुद्ध योगवाले, श्रेष्ठ चारित्रशुद्धि एवं लेश्याशुद्धि को प्राप्त करनेवाले साधु को ॥२५४।। तस्यापूर्वकरणमथ घातिकर्मक्षयैकदेशोत्थम् । ऋद्धिप्रवेकविभवादुपजातं जातभद्रस्य ॥२५५॥
अर्थ : वैसे कल्याणमूर्ति साधु को घाती कर्मों के क्षय से या एकदेश [आंशिक] के क्षय से उत्पन्न होनेवाली अनेक प्रकार की ऋद्धियों के वैभव से युक्त अपूर्वकरण [नामक गुणस्थानक] प्राप्त होता है ॥२५५॥ सातद्धिरसेष्वगुरूः सम्प्राप्यद्धि विभूतिमसुलभामन्यैः । सक्तः प्रशमरतिसुखे न भजति तस्यां मुनिः सङ्गम् ॥२५६॥
अर्थ : शाता, ऋद्धि और रस में प्रेम नहीं रखने वाले एवं प्रशमरति के सुख में आसक्त मुनि, दूसरों से अप्राप्य वैसी विभूति [लब्धि] प्राप्त करके भी उसमें ममत्व नहीं रखते ॥२५६॥ या सर्वसुरवद्धिर्विस्मयनीयाऽपि साऽनगारद्धेः । नार्घति सहस्रभागं कोटिशतसहस्त्रगुणिताऽपि ॥२५७॥
अर्थ : आश्चर्यकारी वैसी देवेन्द्र की ऋद्धि [विभूति] को भी यदि एक लाख करोड़ से गुणाकार की जाये तो भी वह अणगार की ऋद्धि के एक हजारवें हिस्से में भी नहीं आती ॥२५७॥