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प्रशमरति
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एवं संस्थानविचय को प्राप्त करते हैं ॥२४७॥ आप्तवचनं प्रवचनं चाज्ञा विचयस्तदर्थनिर्णयनम् । आस्रव-विकथा-गौरव-परीषहाद्यैरपायस्तु ॥२४८॥
अर्थ : आप्त का वचन वह प्रवचन [आगम] , उसका अर्थनिर्णय वह आज्ञाविचय और आस्रव, विकथा, गारव, परिषह वगैरह में अनर्थ का चिन्तन करना, वह है अपायविचय ॥२४८॥ अशुभ-शुभकर्मपाकानुचिन्तनार्थो विपाकविचयः स्यात् । द्रव्यक्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थानविचयस्तु ॥२४९॥
अर्थ : अशुभ और शुभ कर्मों के विपाक का विचार करना उसे विपाकविचय कहते हैं और द्रव्य तथा क्षेत्र के आकार का चिन्तन करना उसे संस्थानविचय कहा जाता है ॥२४९॥ जिनवरवचनगुणगणं संचिन्तयतो वधाद्यपायांश्च । कर्मविपाकान् विविधान् संस्थानविधीननेकांश्च ॥२५०॥
अर्थ : जिनवरवचनों में व्याप्त गुणसमूह को, हिंसा वगैरह के अनर्थों को, विविध कर्मविपाकों को तथा अनेक प्रकार की आकृतियों को सोचने वाले साधु को ॥२५०॥ नित्योद्विग्नस्यैवं क्षमाप्रधानस्य निरभिमानस्य । धूतमायाकलिमलनिर्मलस्य जितसर्वतृष्णस्य ॥२५१॥