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प्रशमरति
लोकालोकव्यापकमाकाशं मर्त्यलौकिकः कालः । लोकव्यापि चतुष्टयमवशेषं त्वेकजीवो वा ॥२१३॥
अर्थ : आकाशद्रव्य, लोक एवं अलोक में व्यापक है । काल का व्यहार मनुष्य लोक में ही है। शेष चारों द्रव्य लोकव्यापी हैं । एक जीव भी लोकव्यापी बन सकता है ॥२१३॥
धर्माधर्माकाशानि एकैकमतः परं त्रिकमनन्तम् । कालं विनास्तिकाया जीवमृते चाप्यकर्तृणि ॥ २१४॥
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अर्थ : धर्म, अधर्म व आकाश एक-एक है । शेष तीनों द्रव्य अनन्त हैं । काल के अलावा पाँचों द्रव्य अस्तिकाय हैं, और जीव के अतिरिक्त द्रव्य अकर्त्ता है । [ मात्र जीव ही कर्त्ता है ] ॥ २१४ ||
धर्मो गतिस्थितिमतां द्रव्याणां गत्युपग्रहविधाता । स्थित्युपकृच्चाधर्मोऽवकाशदानोपकृद् गमनम् ॥२१५॥
अर्थ : गति व स्थितिवाले द्रव्यों के लिए गति करने में धर्मास्तिकाय सहायक होता है । अधर्मास्तिकाय स्थिरता करने में सहायक है और आकाशास्तिकाय अवकाश देने में सहायक होता है || २१५ ॥
स्पर्शरसगन्धवर्णाः शब्दो बन्धश्च सूक्ष्मता स्थौल्यम् । संस्थानं भेदतमश्छायोद्योतातपश्चेति ॥ २१६॥