Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 64
________________ प्रशमरति विपरीत विनाश दिखता है । वस्तु का जो स्वरूप वर्तमान काल में, अतीतकाल में [च शब्द का अर्थ : अतीतभूतकाल करना है] और भविष्य काल में होता है, उस स्वरूप में उस वस्तु का नाश न होना, यह स्वरूप से नित्यता है ॥२०५-२०६॥ धर्माधर्माकाशानि पुद्गलाः काल एव चाजीवाः । पुद्गलवर्जमरूपं तु रूपिणः पुद्गलाः प्रोक्ताः ॥२०७॥ अर्थ : धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, पुद्गलद्रव्य एवं काल, ये (पाँच) अजीव द्रव्य है । पुद्गल के अलावा सभी चारों द्रव्य अरूपी हैं एवं पुद्गलद्रव्य रूपी कहे गये हैं ॥२०७॥ द्वयादिप्रदेशवन्तो यावदनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः। परमाणुरप्रदेशो वर्णादिगुणेषु भजनीयः ॥२०८॥ अर्थ : दो आदि प्रदेशों से लेकर अनंत प्रदेश वाले स्कंध होते हैं । परमाणु अप्रदेशी हैं (पर) रूप वगैरह गुणों की अपेक्षया वे सप्रदेशी हैं ॥२०८॥ भावे धर्माधर्माम्बरकाला: पारिणामिके ज्ञेयाः। उदयपरिणामि रूपं तु सर्वभावानुगा जीवाः ॥२०९॥ अर्थ : धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल-इन चारों द्रव्यों को 'पारिणामिक भाव' में जानना ।

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