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प्रशमरति
की अपेक्षया आत्मा है एवं पर की अपेक्षया अनात्मा है ॥२०२॥ एवं संयोगाल्पबहुत्वाद्यैर्नेकशः स परिमृग्यः । जीवस्यैतत् सर्वं स्वतत्त्वमिह लक्षणैर्दष्टम् ॥२०३॥
अर्थ : इस तरह संयोग, अल्प-बहुत्व वगैरह के द्वारा अनेक प्रकार से आत्मा की परीक्षा करनी चाहिए । यहाँ जीव का यह सारा [विवरण] स्वतत्त्वभूत स्वरूप लक्षणों से देखा गया है ॥२०३॥ उत्पादविगमनित्यत्वलक्षणं यत्तदस्ति सर्वमपि । सदसद्वा भवतीत्यन्यथापितानर्पितविशेषात् ॥२०४॥
अर्थ : जो उत्पत्ति-व्यय व ध्रौव्य के लक्षण से युक्त है वह सब सत् है। उससे जो विपरीत है वह असत् है। इस तरह अर्पित-अनर्पित के भेद से वस्तु सत्-असत् होती है ॥२०४॥ योऽर्थो यस्मिन्नाभूत् साम्प्रतकाले च दृश्यते तत्र । तेनोत्पादस्तस्य विगमस्तु तस्माद्विपर्यासः ॥२०५॥ साम्प्रतकाले चानागते च यो यस्य भवति सम्बन्धी । तेनाविगमस्तस्येति स नित्यस्तेन भावेन ॥२०६॥
अर्थ : जिसमें वह अर्थ नहीं था पर वर्तमान काल में दिखायी दे रहा है, उसकी उस अर्थ में उत्पत्ति है और उससे