Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 48
________________ प्रशमरति ४७ __अर्थ : मुनि को वही सोचना चाहिए-वही बोलना चाहिए और वही करना चाहिए, जो इस लोक में और परलोक में, सर्वदा स्वयं को एवं अन्य को, उभय को दुःखद न हो ॥१४७॥ सर्वार्थेष्विन्द्रियसंगतेषु वैराग्यमार्गविघ्नेषु । परिसंख्यानं कार्यं कार्यं परमिच्छुना नियतम् ॥१४८॥ अर्थ : उत्कृष्ट और शाश्वत् कार्य मोक्ष के अभिलाषी मुनि को वैराग्य के रास्ते में विघ्न करनेवाले एकेन्द्रिय विषयों में सर्वदा प्रत्याख्यान करना चाहिए ॥१४८॥ भावयितव्यमनित्यत्वमशरणत्वं तथैकताऽन्यत्वे । अशुचित्वं संसारः कर्माश्रवसंवरविधिश्च ॥१४९॥ निर्जरणलोकविस्तर-धर्मस्वाख्याततत्त्वचिन्ताश्च । बोधेः सुदुर्लभत्वं च भावना द्वादश विशुद्धाः ।।१५०॥ अर्थ : अनित्यता, अशरणता, एकत्व, अन्यत्व, अशुचिता, संसार, आश्रव, संवर, निर्जरा, लोकविस्तार, स्वाख्यातधर्म का चिन्तन और बोधिदुर्लभता, ये बारह विशुद्ध भावनाएँ हैं, उसकी सतत् अनुप्रेक्षा करनी चाहिए ॥१४९-१५०॥ इष्टजनसंप्रयोगद्धि-विषयसुख-संपदस्तथारोग्यम् । देहश्च यौवनं जीवितञ्च सर्वाण्यनित्यानि ॥१५१॥

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