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प्रशमरति शासनसामर्थ्येन तु संत्राणबलेन चानवद्येन । युक्तं यत्तच्छास्त्रं तच्चैतत् सर्वविद्वचनम् ॥१८८॥
अर्थ : अनुशासन करने के सामर्थ्य से एवं निर्दोष रक्षणबल से मुक्त होने के कारण उसे शास्त्र कहा जाता है
और वह शास्त्र सर्वज्ञवचन ही है ॥१८८॥ जीवाजीवाः पुण्यं पापास्त्रवसंवराः सनिर्जरणाः। बन्धो मोक्षश्चैते सम्यक् चिन्त्या नवपदार्थाः ॥१८९॥
अर्थ : जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध एवं मोक्ष-इन नौ पदार्थों का अच्छी तरह चिन्तन करना चाहिए ॥१८९॥ जीवा मुक्ताः संसारिणश्च संसारिणस्त्वनेकविधाः। लक्षणतो विज्ञेया द्वित्रिचतुः पञ्चषड्भेदाः ॥१९०॥
अर्थ : जीव दो तरह के होते हैं-मुक्त जीव एवं संसारी जीव । संसारी जीव दो-तीन-चार-पाँच-छह वगैरह अनेक तरह के होते हैं । उन जीवों को लक्षण से जानने चाहिए ॥१९०॥ द्विविधाश्चराचराख्यास्त्रिविधाः स्त्रीपुंनपुंसका ज्ञेयाः। नारकतिर्यग्मानुषदेवाश्चचतुर्विधाः प्रोक्ताः ॥१९१॥ पञ्चविधास्त्वेकद्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियाश्च निर्दिष्टाः । क्षित्यम्बुवह्निपवनतरवस्त्रसाश्चेति षड्भेदाः ॥१९२॥