Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 58
________________ प्रशमरति ५७ यावत्परगुणदोषपरिकीर्तने व्यापृतं मनो भवति । तावद्वरं विशुद्धे ध्याने व्यग्रं मनः कर्तुम् ॥१८४॥ ___ अर्थ : जब तक मन दूसरों के गुण-दोष गाने में प्रवृत्त रहता हो तब तक उस मन को विशुद्ध ध्यान में व्यग्र करना बेहतर है ॥१८४॥ शास्त्राध्ययने चाध्यापने च संचिन्तने तथात्मनि च । धर्मकथने च सततं यत्नः सर्वात्मना कार्यः ॥१८५॥ अर्थ : शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन-चिन्तन और आत्मचिन्तन में एवं धर्मकथा करने में मन-वचन-काया से सतत प्रयत्न करना चाहिए ॥१८५।। शास्विति वाग्विधिविद्भिर्धातुः पापठ्यतेऽनुशिष्ट्यर्थः । त्रैङिति पालनार्थे विनिश्चितः सर्वशब्दविदाम् ॥१८६॥ यस्माद् रागद्वेषोद्धतचित्तान् समनुशास्ति सद्धर्मे । संत्रायते च दुःखाच्छास्त्रमिति निरुच्यते सद्भिः ॥१८७॥ अर्थ : चौदहपूर्वधर 'शास्' धातु का अर्थ अनुशासन करते हैं और 'त्रैङ् धातु को सभी शब्दवेत्ताओं ने 'पालन' अर्थ में सुनिश्चित किया हुआ है। इसलिये, रागद्वेष से जिनके चित्त व्याप्त हैं, उन्हें सद्धर्म में अनुशासित करता है और दुःख से बचाता है, अतः सज्जन लोग उसे 'शास्त्र' कहते हैं ॥१८६-१८७॥

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