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प्रशमरति
दण्ड और इन्द्रियों के व्यूहों का नाश कर डालती है ॥१८०॥ प्रवचनभक्तिः श्रुतसंपदुद्यमो व्यतिकरश्च संविग्नैः। वैराग्यमार्गसद्भावमावधीस्थैर्यजनकानि ॥१८१॥
अर्थ : जिनप्रवचन में भक्ति, शास्त्र-संपत्ति में उद्यम (प्रयत्न) और संसारभीरु जीवों का संपर्क-(ये तीन बातें) वैराग्यमार्ग में बुद्धि की स्थिरता पैदा करते हैं, जीवादितत्त्वों की श्रद्धा में और (क्षयोपशमजन्य) भावों में बुद्धि की स्थिरता उत्पन्न करते हैं ॥१८१॥ आक्षेपणी विक्षेपणी विमार्गबाधनसमर्थविन्यासाम् । श्रोतृजनश्रोत्रमनःप्रसादजननीं यथा जननीं ॥१८२॥ संवेदनीं च निर्वेदनीं च धर्त्या कथां सदा कुर्यात् । स्त्रीभक्तचौरजनपदकथाश्च दूरात् परित्याज्याः ॥१८३॥
अर्थ : उन्मार्ग का उच्छेद करने में समर्थ रचनायुक्त और श्रोतावर्ग के कान और मन को माँ की तरह आनन्द देनेवाली आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी धर्मकथा सदा करनी चाहिए । एवं स्त्री-कथा, भोजन कथा, चोर कथा और राज्य कथा (देश कथा) दूर से ही (मन से भी) छोड़ देनी चाहिए ॥१८२-१८३॥