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प्रशमरति
और स्वाध्याय ये छह तरह के आभ्यन्तर तप हैं ॥१७६॥ दिव्यात्कामरतिसुखात् त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकम् । औदारिकादपि तथा तद् ब्रह्माष्टादशविकल्पम् ॥१७७॥
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अर्थ : देवसम्बन्धी एवं औदारिक- शरीर सम्बन्धी कामरति के सुख से, नौ नौ प्रकार से विरत होने के कारण ब्रह्मचर्य के अट्ठारह प्रकार होते हैं ॥१७७॥
अध्यात्मविदो मूर्च्छा परिग्रहं वर्णयन्ति निश्चयतः । तस्माद् वैराग्येप्सोराकिञ्चन्यं परो धर्मः ॥ १७८ ॥
अर्थ : अध्यात्मवेत्ता निश्चयनय से मूर्च्छा को परिग्रह कहते हैं, उससे मुमुक्षु के लिए अकिंचनता श्रेष्ठ धर्म है ॥१७८॥ दशविधधर्मानुष्ठायिनः सदा रागद्वेषमोहानाम् । दृढरूढघनानामपि भवत्युपशमोऽल्पकालेन ॥ १७९॥
अर्थ : जो इस दस प्रकार के यतिधर्म का सदा पालन करते हैं, उनका दृढ राग, रूढ द्वेष और घनीभूत मोह अल्प समय में उपशान्त होता है || १७९ ।। अथवा क्षय होता है ।
ममकाराहंकारत्यागादतिदुर्जयोद्धतप्रबलान् । हन्ति परिषहगौरवकषायदण्डेन्द्रियव्यूहान् ॥१८०॥
अर्थ : अहंकार और ममकार का त्याग करने से आत्मा, अत्यन्त दुर्जय और बलवान परिषह, गारव, कषाय,