Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ प्रशमरति मानुष्यकर्मभूम्यार्यदेशकुलकल्यतायुरुपलब्धौ। श्रद्धाकथकश्रवणेषु सत्स्वपि सुदुर्लभा बोधिः ॥१६२॥ ____ अर्थ : मनुष्य जन्म, कर्मभूमि, आर्यदेश, आर्यकुल, निरोगिता और आयुष्य प्राप्त होने पर भी, श्रद्धा, सद्गुरु और शास्त्रश्रवण मिल जाने पर भी, बोधि [सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान] प्राप्त होना काफी कठिन है ॥१६२॥ तां दुर्लभां भवशतैर्लब्ध्वाऽप्यतिदुर्लभा पुनर्विरतिः। मोहाद्रागात्कापथविलोकनाद् गौरववशाच्च ॥१६३॥ अर्थ : सैकड़ों जन्मों में वो दुर्लभ बोधि प्राप्त कर लेने पर भी मोह से, राग से, उन्मार्गदर्शन से और गारववशता से विरति [देशविरति-सर्वविरति] अत्यन्त दुर्लभ है ॥१६३॥ तत्प्राप्य विरतिरत्नं वैरागमार्गविजयो दुरधिगम्यः । इन्द्रियकषायगौरवपरिषहसपत्नविधुरेण ॥१६४॥ अर्थ : वो विरतिरत्न पा लेने पर भी, इन्द्रिय-कषायगारव और परिषह शत्रु की व्याकुलता के कारण, वैराग्यमार्ग का विजय काफी दुर्जय होता है ॥१६४॥ तस्मात् परिषहेन्द्रियगौरवगणनायकान् कषायरिपून् । क्षान्तिबलमार्दवार्जवसन्तोषैः साधयेद्धीरः ॥१६५॥ अर्थ : अतः धीर पुरुष को परिषह-इन्द्रिय और गारवसमूह के नायक कषायशत्रुओं को क्षमा-मार्दव-आर्जव

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98