Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 53
________________ ५२ प्रशमरति और संतोष रूपी सैन्य से जीतना चाहिए ॥१६५॥ संचिन्त्य कषायाणामुदयनिमित्तमुपशान्तिहेतुं च । त्रिकरणशुद्धमपि तयोः परिहारासेवने कार्ये ॥१६६॥ अर्थ : कषायों के उदय के निमित्तों को और कषायों के उपशम के निमित्तों का भलीभाँति विचार करके, मनवचन-काया की शुद्धि से, कषायउदय के निमित्तों का त्याग और उपशम के निमित्तों का सेवन करना चाहिए ॥१६६॥ सेव्याः क्षान्तिर्दिवमार्जवशौचे च संयमत्यागौ। सत्यतपोब्रह्माकिञ्चन्यानीत्येष धर्मविधिः ॥१६७॥ अर्थ : क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, संयम, त्याग, सत्य, तप, ब्रह्मचर्य और अकिंचनता, इस धर्मविधि (धर्म के प्रकार) का सेवन करना चाहिए ॥१६७।। धर्मस्य दया मूलं न चाक्षमावान् दयां समादत्ते । तस्माद्यः क्षान्तिपरः स साधयत्त्युत्तमं धर्मम् ॥१६८॥ ___ अर्थ : धर्म का मूल दया है, जो क्षमाशील नहीं होता है, वो दया को धारण नहीं कर सकता है । अतः जो क्षमाधर्म में तत्पर है वो उत्तम धर्म की साधना कर लेता है ॥१६८॥ विनयायत्ताश्च गुणाः सर्वे विनयश्च मार्दवायत्तः । यस्मिन् मार्दवमखिलं स सर्वगुणभाक्त्वमाप्नोति ॥१६९॥

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