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प्रशमरति
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यद्वत्पङ्काधारमपि पङ्कजं नोपलिप्यते तेन । धर्मोपकरणधृतवपुरपि साधुरलेपकस्तद्वत् ॥१४०॥
अर्थ : जिस तरह कीचड़ में रहा हुआ कमल कीचड़ से लिप्त नहीं होता, उसी तरह धर्म-उपकरण को शरीर पर धारण करने वाले साधु भी कमल की भांति निर्लेप रहते हैं ॥१४०॥ यद्वत्तुरगः सत्स्वप्याभरणविभूषणेष्वनभिसक्तः । तद्वदुपग्रहवानपि न सङ्गमुपयाति निर्ग्रन्थः ॥ १४१ ॥
अर्थ : जिस तरह घोड़ा आभूषणों से विभूषित होने पर भी [आभूषणों में] आसक्त नहीं होता, उसी तरह उपग्रह [धर्मोपकरण] युक्त होने पर भी निर्ग्रन्थ उसमें मोह नहीं
करता ॥१४१॥
ग्रन्थः कर्माष्टविधं मिथ्यात्वाविरतिदुष्टयोगाश्च । तज्जयहेतोरशठं संयतते यः स निर्ग्रन्थः ॥ १४२॥
अर्थ : आठ प्रकार के कर्म, मिथ्यात्व, अविरति और अशुभ योग, यह ग्रन्थ है । उसे जीतने के लिए जो अशठतया [मायारहित] सम्यग् उद्यम करता है वह निर्ग्रन्थ है ॥ १४२ ॥
यज्ज्ञानशीलतपसामुपग्रहं निग्रहं च दोषाणाम् । कल्पयति निश्चये यत् तत् कल्प्यमकल्प्यमवशेषम् ॥१४३॥ अर्थ : अतः जो वस्तु ज्ञान, शील और तप को बढाये