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प्रशमरति
योग्य भोजन बनता है ॥१३६।। कालं क्षेत्रं मात्रां स्वात्म्यं द्रव्यगुरुलाघवं स्वबलम् । ज्ञात्वा योऽभ्यवहार्यं भुङ्क्ते किं भेषजैस्तस्य ॥१३७॥
अर्थ : काल [समय] क्षेत्र, मात्रा, स्वभाव, द्रव्य का भारीपन-हल्कापन और स्वयं की ताकत को जानकर जो भोजन करता है, उसे औषधों से क्या ? [उसे दवाईयों से क्या लेना-देना ?] ॥१३७॥ पिण्डः शय्या वस्त्रैषणादि पात्रैषणादि यच्चान्यत् । कल्प्याकल्प्यं सद्धर्मदेहरक्षानिमित्तोक्तम् ॥१३८॥
अर्थ : आहार, उपाश्रय, वस्त्र-एषणादि, पात्र-एषणादि और दूसरा जो कुछ भी कल्प्य या अकल्प्य बताया गया है वह सद्धर्म के हेतुभूत शरीर की रक्षा के निमित्त कहा गया है ॥१३८॥ कल्प्याकल्प्यविधिज्ञः संविग्नसहायको विनीतात्मा । दोषमलिनेऽपि लोके प्रविहरति मुनिर्निरुपलेपः ॥१३९॥
अर्थ : कल्पनीय और अकल्पनीय की विधि को जानने वाला, संविग्न [संसारभीरु और ज्ञान-क्रियायुक्त] पुरुषों का सहायक और विनीत, मुनि, दोषों से मलिन लोक में [रहने पर भी] लेपरहित [राग-द्वेषरहित] विचरण करता है ॥१३९॥