Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 43
________________ ४२ प्रशमरति या चेह लोकवार्ता शरीरवार्ता तपस्विनां या च। सद्धर्मचरणवार्तानिमित्तकं तद्वयमपीष्ट्यम् ॥१३०॥ अर्थ : कोई भी इहलोक की वार्ता या शरीर की बातें साधुओं के सद्धर्म और चारित्र के निर्वाह में हेतुभूत हों, वे दोनों [लोकवार्ता-शरीरवार्ता] अभिमत हैं [यानि की जिनशासन को मान्य है] ॥१३०॥ लोकः खल्वाधारः सर्वेषां ब्रह्मचारिणां यस्मात् । तस्माल्लोकविरुद्धं धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् ॥१३१॥ अर्थ : सभी संयमी जनों का आधार लोक (जनपद) ही है, इसलिये लोकविरुद्ध और धर्मविरुद्ध का त्याग करना चाहिये ॥१३१॥ देहो नासाधनको लोकाधीनानि साधनान्यस्य । सद्धर्मानुपरोधात्तस्माल्लोकोऽभिगमनीयः ॥१३२॥ अर्थ : साधन के बिना शरीर नहीं है, उसके साधन लोकाधीन हैं । इसलिये सद्धर्म को अविरुद्ध लोक का अनुसरण करना चाहिए ॥१३२॥ । दोषेणानुपकारी भवति परो येन येन विद्वेष्टिः । स्वयमपि तद्दोषपदं सदा प्रयत्नेन परिहार्यम् ॥१३३॥ अर्थ : जिन जिन दोषों से दूसरा आदमी अनुपकारी होता है, द्वेष करता है, उन उन दोषस्थान का स्वयं को भी

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