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प्रशमरति
अर्थ : इष्टजनों का संयोग, ऋद्धि, विषयसुख, सम्पत्ति, आरोग्य, शरीर, यौवन और जीवन ये सभी अनित्य हैं ॥१५१॥
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जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके ॥१५२॥
अर्थ : जन्म-जरा और मृत्यु के भय से अभिभूत एवं रोग व वेदना से आक्रान्त लोक में (जीवसृष्टि में) तीर्थंकर के वचन के अलावा और कोई शरण नहीं है ॥ १५२ ॥
एकस्य जन्ममरणे गतयश्च शुभाशुभा भवावर्ते । तस्मादाकालिकहितमेकेनैवात्मनः कार्यम् ॥१५३॥
अर्थ : संसारसागर के आवर्त में जीव अकेला (असहाय) जन्म लेता है, अकेला मरता है । अकेला शुभअशुभ गति में जाता है । अतः जीवात्मा को अकेले ही अपना स्थायी हित करना चाहिए || १५३॥
अन्योऽहं स्वजनात् परिजनाच्च विभवाच्छरीरकाच्चेति । यस्य नियता मतिरियं न बाधते तं हि शोककलिः ॥१५४॥
अर्थ : 'मैं स्वजनों से, परिजनों से, संपत्ति से और शरीर से भी भिन्न हूँ...' जिसकी इस तरह की मति सुनिश्चित है उसे शोकरूप कलि दुःखी नहीं करता ॥ १५४ ॥