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प्रशमरति
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जो हास्य, रति, अरति और शोक में स्वस्थ रहता है, जो भय और निन्दा से पराजित नहीं होता है, उसे जो सुख होता है वैसा सुख दूसरों को कैसे हो सकता है ? ॥ १२६॥ सम्यग्दृष्टिर्ज्ञानी ध्यानतपोबलयुतोऽप्यनुपशान्तः । तं न लभते गुणं यं प्रशमगुणमुपाश्रितो लभते ॥१२७॥
अर्थ : सम्यग् दृष्टि, ज्ञानी, ध्यानी और तपस्वी (साधक) भी यदि प्रशान्त न हो तो वह वो गुण प्राप्त नहीं करता है, जो गुण प्रशमगुणयुक्त (साधक) पा लेता है ॥ १२७॥
नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥ १२८॥
अर्थ : लौकिक प्रवृत्तियों से मुक्त साधु को जो इसी जन्म में मिलता है वो न तो चक्रवर्ती को मिलता है और नही देवेन्द्र को उपलब्ध होता है ॥ १२८ ॥
संत्यज्य लोकचिन्तामात्मपरिज्ञानचिन्तनेऽभिरतः । जितरोषलोभमदनः सुखमास्ते निर्जरः साधुः ॥१२९ ॥
अर्थ : लोक की [ स्वजन - परिजन की ] चिन्ता छोड़कर आत्मज्ञान के चिन्तन में अभिरत रहने वाला, रागद्वेष और काम को जीतने वाला और इस कारण नीरोगी बना हुआ साधु स्वस्थ रहता है [ उपद्रवरहित होकर जीता है ] ॥१२९ ॥