Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 42
________________ प्रशमरति ४१ जो हास्य, रति, अरति और शोक में स्वस्थ रहता है, जो भय और निन्दा से पराजित नहीं होता है, उसे जो सुख होता है वैसा सुख दूसरों को कैसे हो सकता है ? ॥ १२६॥ सम्यग्दृष्टिर्ज्ञानी ध्यानतपोबलयुतोऽप्यनुपशान्तः । तं न लभते गुणं यं प्रशमगुणमुपाश्रितो लभते ॥१२७॥ अर्थ : सम्यग् दृष्टि, ज्ञानी, ध्यानी और तपस्वी (साधक) भी यदि प्रशान्त न हो तो वह वो गुण प्राप्त नहीं करता है, जो गुण प्रशमगुणयुक्त (साधक) पा लेता है ॥ १२७॥ नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥ १२८॥ अर्थ : लौकिक प्रवृत्तियों से मुक्त साधु को जो इसी जन्म में मिलता है वो न तो चक्रवर्ती को मिलता है और नही देवेन्द्र को उपलब्ध होता है ॥ १२८ ॥ संत्यज्य लोकचिन्तामात्मपरिज्ञानचिन्तनेऽभिरतः । जितरोषलोभमदनः सुखमास्ते निर्जरः साधुः ॥१२९ ॥ अर्थ : लोक की [ स्वजन - परिजन की ] चिन्ता छोड़कर आत्मज्ञान के चिन्तन में अभिरत रहने वाला, रागद्वेष और काम को जीतने वाला और इस कारण नीरोगी बना हुआ साधु स्वस्थ रहता है [ उपद्रवरहित होकर जीता है ] ॥१२९ ॥

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