Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 33
________________ ३२ प्रशमरति माषतुषोपाख्यानं श्रुतपर्यायप्ररूपणां चैव । श्रुत्वातिविस्मयकरं च विकरणं स्थूलभद्रमुनेः ॥९५॥ अर्थ : माषतुष मुनि का कथानक (सुनकर) तथा आगम के भेदों की प्ररूपणा सुनकर, अति विस्मयजनक स्थूलभद्र मुनि का विकरण (वैक्रिय सिंहरूप का निर्माण एवं श्रुतसम्प्रदायविच्छेद) सुनकर ॥ ९५ ॥ सम्पर्कोद्यमसुलभं चरणकरणसाधकं श्रुतज्ञानम् । लब्ध्वा सर्वमदहरं तेनैव मदः कथं कार्यः ? ॥ ९६ ॥ अर्थ : सम्पर्क (बहुश्रुत आचार्यादि के साथ) और उद्यम से सुलभ, चरणकरण का साधक श्रुतज्ञान जो कि जात्यादि सभी मदों का नाश करने वाला है, उसे पाकर उससे ही क्या मद करना ? ॥९६॥ एतेषु मदस्थानेषु निश्चयेन च गुणोऽस्ति कश्चिदपि । केवलमुन्मादः स्वहृदयस्य संसारवृद्धिश्च ॥९७॥ अर्थ : इन जाति आदि आठों मदस्थानों में परमार्थदृष्टि सेतो सचमुच कोई गुण है ही नहीं, यदि कुछ है भी तो मात्र अपने हृदय का उन्माद और संसार की वृद्धि ! ॥९७॥ जात्यादिमदोन्मत्तः पिशाचवद्भवति दुःखितश्चेह । जात्यादिहीनतां परभवे च निःसंशयं लभते ॥ ९८ ॥ अर्थ : जाति वगैरह के मद से उन्मत्त [ मनुष्य ] इस

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