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प्रशमरति देशकुलदेहविज्ञानायुर्बलभोगभूतिवैषम्यम्। दृष्ट्वा कथमिह विदुषां भवसंसारे रतिर्भवति ? ॥१०२॥
अर्थ : देश, कुल, शरीर, विज्ञान, आयुष्य, बल, भोग और वैभव की विषमता देखकर विद्वानों को इस [नरकादिरूप] भवसंसार में किस तरह से प्रीति हो ? ॥१०२॥ अपरिगणितगुणदोषः स्वपरोभयबाधको भवति यस्मात् । पञ्चेन्द्रियबलविबलो रागद्वेषोदयनिबद्धः ॥१०३॥
अर्थ : गुण व दोष का विचार नहीं करने वाला, पाँच इन्द्रियों के बल से विबल और रागद्वेष के उदय से बद्ध (जीवात्मा) स्व और पर दोनों के कष्टदायी बनता है ॥१०३।। तस्माद् रागद्वेषत्यागे पञ्चेन्द्रियप्रशमने च। शुभपरिणामावस्थितिहेतोर्यत्नेन घटितव्यम् ॥१०४॥
अर्थ : इसलिये, शुभ विचारों की स्थिरता के लिये, राग और द्वेष के त्याग में, और पाँच इन्द्रियों को शान्त करने के लिये प्रयत्न करना चाहिए ॥१०४॥ तत्कथमनिष्टविषयाभिकाक्षिणा भोगिना वियोगो वै । सुव्याकुलहृदयेनापि निश्चयेनागमः कार्यः ॥१०५॥
अर्थ : अनिष्ट विषयों की आकांक्षा वाले (उससे) अत्यन्त व्याकुल हृदय वाले भोगासक्त जीवात्मा का