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प्रशमरति
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भव में पिशाच की भांति दुःखी होता है और परलोक में अवश्यमेव हीन जाति को प्राप्त करता है ॥९८॥ सर्वमदस्थानानां मूलोद्घातार्थिना सदा यतिना । आत्मगुणैरुत्कर्षः परपरिवादश्च सन्त्याज्यः ॥९९॥
अर्थ : सारे मदस्थानों का मूल जो [ गर्व ] है उसका विनाश चाहते हुए साधु को सदैव अपने गुणों से गर्वित नहीं होना चाहिए और दूसरों का अवर्णवाद छोड़ देना चाहिए ॥९९॥
परपरिभवपरिवादात्मोत्कर्षाच्च बध्यते कर्म । नीचैर्गोत्रं प्रतिभवमनेकभवकोटिदुर्मोचम् ॥१००॥
अर्थ : दूसरों का पराभव [ तिरस्कार ] करने से और परिवाद [निन्दा] करने से तथा अपने उत्कर्ष से 'नीचगोत्र कर्म' करोड़ों भवों में भी न छूटे ऐसा जनम-जनम तक बंधता रहता है ॥१००॥
कर्मोदयनिर्वृत्तं हीनोत्तममध्यमं मनुष्याणाम् । तद्विधमेव तिरश्चां योनिविशेषान्तरविभक्तम् ॥१०१॥
अर्थ : कर्म [ गोत्र ] के उदय से मनुष्यों का नीचपन, उच्चपन और मध्यमपन निष्पन्न है, उसी तरह तिर्यंचों को [हीनत्व इत्यादि] अलग-अलग योनि के भेद से अलगअलग होता है ॥१०१॥