Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 31
________________ प्रशमरति के आगे निर्बलता का बुद्धि-बल से सम्यक् पर्यालोचन करके बल होने पर भी मद नहीं करना चाहिए ॥८८।। उदयोपशमनिमित्तौ लाभालाभावनित्यकौ मत्वा । नालाभे वैक्लव्यं न च लाभे विस्मयः कार्यः ॥८९॥ अर्थ : लाभान्तराय कर्म के उदयनिमित्तक अलाभ और लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम निमित्तक लाभ-इस तरह लाभ और अलाभ को अनित्य समझकर अलाभ में दीनता नहीं करना और लाभ में गर्व नहीं करना ॥८९॥ परशक्त्यभिप्रसादात्मकेन किंचिदुपयोगयोग्येन । विपुलेनापि यतिवृषा लाभेन मदं न गच्छन्ति ॥१०॥ अर्थ : दूसरे की [दाता की] शक्तिरूप और अभिप्रसादरूप कुछ उपभोगयोग्य (पदार्थो) का बहुत लाभ होने पर श्रेष्ठ साधुपुरुष अभिमान नहीं करते हैं ॥९०॥ ग्रहणोद्ग्राहणनवकृतिविचारणार्थावधारणाद्येषु । बुद्ध्यङ्गविधिविकल्पेष्वनन्तपर्यायवृद्धेषु ॥११॥ अर्थ : ग्रहण [नये सूत्रार्थ को ग्रहण करने में सक्षम उद्ग्राहण [दूसरों को सूत्रार्थ देने में समर्थ] नवकृति [अभिनव शास्त्र बनाने में समर्थ] विचारणा [सूक्ष्म पदार्थ जैसे की आत्मा, कर्म इत्यादि में युक्तिपूर्वक जिज्ञासा] अर्थावधारणा [आचार्यादि के मुखकमल से निसृत शब्दार्थ

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