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प्रशमरति
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ज्ञात्वा भवपरिवर्ते जातीनां कोटिशतसहस्त्रेषु । हीनोत्तममध्यत्वं को जातिमदं बुधः कुर्यात् ॥८१॥
अर्थ : भव के परिभ्रमण में चौरासी लाख जातियों में हीन, उत्तम और मध्यमपन जानकर कौन विद्वान् जाति का मद करेगा ॥८१॥
नैकान् जातिविशेषानिन्द्रियनिर्वृत्तिपूर्वकान् सत्वाः । कर्मवशाद् गच्छन्त्यत्र कस्य का शाश्वता जातिः ॥८२॥
अर्थ : इन्द्रियरचनापूर्वक की अनेक विविध जातियों में कर्मपरवशता से जीव जाते हैं [ऐसे] इस संसार में किस जीव की कौन सी जाति शाश्वत् है ? ॥८२॥
रूपबलश्रुतिमतिशीलविभवपरिवर्जितांस्तथा दृष्ट्वा । विपुलकुलोत्पन्नानपि ननु कुलमानः परित्याज्यः ॥८३॥
अर्थ : लोकप्रसिद्ध उत्तम कुल में पैदा होने वाले भी रूपरहित, बलरहित, ज्ञानरहित, बुद्धिरहित, सदाचाररहित और वैभवरहित होते हैं, ऐसा देखकर अवश्य कुल के मद का परिहार करना चाहिए ॥८३॥
यस्याशुद्धं शीलं प्रयोजनं तस्य किं कुलमदेन ? । स्वगुणाभ्यलंकृतस्य हि किं शीलवतः कुलमदेन ? ॥८४॥
अर्थ : जिनका शील (सदाचार) अशुद्ध है उन्हें कुल का मद क्यों करना चाहिए और जो अपने गुणों से विभूषित