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प्रशमरति
रसायन का उपयोग नहीं कर पाते हैं ] ॥७७৷৷ यद्वत् कश्चित् क्षीरं मधुशर्करया सुसंस्कृतं हृद्यम् । पित्तार्दितेन्द्रियत्वाद्वितथमतिर्मन्यते कटुकम् ॥७८॥
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अर्थ : मीठी शक्कर युक्त, संस्कारित [ मसाले डालकर उबाला हुआ] और हृदय को प्रिय दूध की, जिसकी इन्द्रियाँ पित्त से व्याकुल हैं ऐसा विपरीत बुद्धिवाला कोई [मनुष्य] जैसे कडुआ मानता है [ मधुर होने पर भी] ॥७८॥ तद्वन्निश्चयमधुरमनुकम्पया सद्भिरभिहितं पथ्यम् । तथ्यमवमन्यमाना रागद्वेषोदयोद्वृत्ताः ॥७९॥
अर्थ : वैसे सज्जनों द्वारा [ गणधर वगैरह ] अनुकंपा से कथित, परिणाम में सुन्दर, योग्य और सत्य का अनादर करने वाले, राग-द्वेष से स्वछंदाचारी ॥७९॥
जातिकुलरूपबललाभबुद्धिवाल्लभ्यकश्रुतमदान्धाः । क्लीबाः परत्र चेह च हितमप्यर्थं न पश्यन्ति ॥८०॥
अर्थ : जाति-कुल- रूप- बल - लाभ - बुद्धि- जनप्रियत्व और श्रुत के मद से अंध बने और निःसत्व, इस भव में और परभव में उपकारी ऐसे अर्थो को [ सर्वज्ञवाणीरूप] देखते नहीं हैं ॥८०॥