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प्रशमरति
दुष्प्रतिकारौ मातापितरौ स्वामी गुरूश्च लोकेऽस्मिन् । तत्र गुरूरिहामुत्र च सदुष्करतरप्रतिकारः ॥७१॥
अर्थ : इस लोक में माता, पिता, स्वामी ( राजा वगैरह ) और गुरु दुष्प्रतिकार्य हैं, उसमें भी गुरु तो इस लोक में और परलोक में अत्यन्त दुर्लभ प्रतिकार्य हैं ॥ ७१ ॥
विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥७२॥
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अर्थ : विनय का फल श्रवण, श्रवण (गुरु के समीप किया हुआ) का फल आगमज्ञान, आगमज्ञान का फल विरति (नियम), विरति का फल संवर (आश्रव निवृत्ति) ॥७२॥
संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जराफलं दृष्टम् । तस्मात् क्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥७३॥
अर्थ : संवर का फल तपः शक्ति, तप का फल निर्जरा, निर्जरा का फल क्रिया - निवृत्ति, क्रियानिवृत्ति से योगनिरोध ॥७३॥
योगनिरोधाद् भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥७४॥
अर्थ : योगनिरोध होने से भवपरंपरा का क्षय होता है, परंपरा (जन्मादि की) के क्षय से मोक्षप्राप्ति होती है,