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प्रशमरति
वादिता] यौवन, धन, मित्र और ऐश्वर्य [ प्रभुता ] की संपत्ति, बिना जल की नदी की भांति सुशोभित नहीं होती है ॥६७॥
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न तथा सुमहायैरपि वस्त्राभरणैरलंकृतो भाति । श्रुतशीलमूलनिकषो विनीतविनयो यथा भाति ॥६८॥
अर्थ : बहुमूल्यवान् वस्त्र और आभूषणों से अलंकृत [ मनुष्य ] भी ऐसा सुशोभित नहीं होता जैसा कि श्रुत और शील के निकष [ कसौटी का पत्थर] रूप विशिष्ट विनययुक्त [मनुष्य ] शोभित बनता है ||६८ ॥ गुर्वायत्ता यस्माच्छास्त्रारम्भा भवन्ति सर्वेऽपि । तस्माद् गुर्वाराधनपरेण हितकांक्षिणा भाव्यम् ॥६९॥
अर्थ : सारी शास्त्रप्रवृत्तियाँ गुरुजनों के अधीन होती हैं, अतः हितकांक्षी (मनुष्य को ) गुरु की आराधना में उपयुक्त होना चाहिए ॥६९॥
धन्यस्योपरि निपतत्यहितसमाचरणघर्मनिर्वापी | गुरुवदनमलयनिसृतो वचनसरसचन्दनस्पर्शः ॥७०॥
अर्थ : अहितकारी क्रियानुष्ठान के ताप को दूर करने में समर्थ गुरु के वदनरूप मलयाचल से निकला वचनरूप आर्द्र चन्दन का स्पर्श धन्य ( पुण्यशाली ) पर गिरता है ॥७०॥