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प्रशमरति
सज्ज्ञान-दर्शनावरण-वेद्य - मोहायुषां तथा नाम्नः । गोत्रान्तराययोश्चेति कर्मबन्धोऽष्टधा मौल ॥३४॥
अर्थ : कर्मबन्ध मूलरूप से आठ तरह का होता है (१) ज्ञानावरण का (२) दर्शनावरण का (३) वेदनीय का (४) मोहनीय का (५) आयुष्य का (६) नाम का (७) गोत्र का और (८) अन्तराय का ||३४||
पञ्चनवद्व्यष्टाविंशतिकश्वतुः षट्कसप्तगुणभेदः । द्विपञ्चभेद इति सप्तनवतिभेदास्तथोत्तरतः ॥३५॥
अर्थ : इस तरह क्रमशः पाँच, नौ, दो, अट्ठाइस, चार, बयालीश (६x७) दो और पाँच - इस तरह (आठ कर्मों के) सित्यानवें उत्तर भेद होते हैं ॥३५॥
प्रकृतिरियमनेकविधा स्थित्यनुभागप्रदेशतस्तस्याः । तीव्रो मन्दो मध्य इति भवति बन्धोदयविशेषः ॥ ३६ ॥
अर्थ : इस तरह यह प्रकृति अनेक प्रकार की (९७ प्रकार की) है । इस प्रकृति का स्थितिबंध, रसबंध [ और प्रदेशबंध] होता है । जिससे विशिष्ट प्रकृतिबंध होता है वो तीव्र, मन्द और मध्यम बन्ध होता है । उदय भी ( प्रकृतियों का) तीव्रादि भेद वाला होता है ||३६||
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तत्र प्रदेशबन्धो योगात् तदनुभवनं कषायवशात् । स्थितिपाकविशेषस्तस्य भवति लेश्याविशेषेण ॥३७॥