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प्रशमरति
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अर्थ : इस भांति ये क्रोध, मान, माया और लोभ जीवात्माओं के दुःख के कारणरूप होने से नरक वगैरह संसार के भयंकर मार्ग का निर्माण करने वाले हैं ||३०||
ममकाराहङ्कारावेषां मूलं पदद्वयं भवति । रागद्वेषावित्यपि तस्यैवान्यस्तु पर्यायः ॥ ३१ ॥
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अर्थ : क्रोधादि कषायों की जड़ में दो बातें हैं ममकार [ममत्व] और अहंकार [गर्व] उसके ही [ममकार और अहंकार के] राग द्वेष आदि अन्य पर्याय हैं ||३१||
मायालोभकषायश्चेत्येतद्रागसंज्ञितं द्वन्द्वम् । क्रोधो मानश्च पुनद्वेष इति समासनिर्दिष्टः ॥३२॥
अर्थ : माया और लोभ का युगल [Couple] राग है एवं क्रोध-मान का युगल द्वेष है, ऐसा संक्षेप में-थोडे में कहा जा सकता है ||३२||
मिथ्यादृष्ट्यविरमणप्रमादयोगास्तयोर्बलं दृष्टम् । तदुपगृहीतावष्टविधकर्मबन्धस्य हेतू तौ ॥३३॥
अर्थ : मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और मन-वचनकाया के योग, ये चार उन राग द्वेष के उपकारी हैं। वे मिथ्यात्वादि से उपगृहीत राग और द्वेष, आठ प्रकार के कर्मबन्धन में निमित्त- सहायक बनते हैं ॥३३॥