Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ प्रशमरति होते हैं, उसी तरह उत्पन्न हुए प्रयोजन से वह विषय को अच्छा या बुरा मानता है । ॥५०॥ अन्येषां यो विषयः स्वाभिप्रायेण भवति तुष्टिकरः। स्वमतिविकल्पाभिरतास्तमेव भूयो द्विषन्त्यन्ये ॥५१॥ अर्थ : दूसरों को जो विषय [शब्द, रूप वगैरह] अपने मनोपरिणाम से परितोष करने वाले बनते हैं वे ही विषय अन्य पुरुषों के लिए जो कि अपने मन के विकल्पों में डूबे रहते हैं, द्वेष का कारण बनते हैं । ॥५१॥ तानेवार्थान् द्विषतस्तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य । निश्चयतोऽस्यानिष्टं न विद्यते किञ्चिदिष्टं वा ॥५२॥ ___अर्थ : उन्हीं [इष्ट] शब्दादि विषयों का द्वेष करते हुए और उन्हीं [अनिष्ट] विषयों में तन्मय बनते हुए इसको [विषयभोगी को] पारमार्थिक, रूप से न तो कुछ इष्ट है और नही अनिष्ट है । ॥५२॥ रागद्वेषोपहतस्य केवलं कर्मबन्ध एवास्य। नान्यः स्वल्पोऽपि गुणोऽस्ति यः परत्रेह च श्रेयान् ॥५३॥ अर्थ : राग और द्वेष से उपहत [मनवाले] उसको केवल कर्मबन्ध ही होता है, इस लोक में या परलोक में, दूसरा अल्प भी गुण [उसमें] नहीं है। ॥५३।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98