Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 18
________________ प्रशमरति १७ अधिवास [मालती आदि फूलों की] और सुगन्धित द्रव्यचूर्णों के गन्ध से भ्रमित (आक्षिप्त) मनवाला [मनुष्य] भ्रमर की भांति नाश पाता है। ॥४३॥ मिष्टान्नपानमांसोदनादि-मधुररसविषयगृद्धात्मा । गलयन्त्रपाशबद्धो मीन इव विनाशमुपयाति ॥४४॥ अर्थ : अत्यन्त स्वादिष्ट भोजन, मद्यपान, मांस, ओदन [चावल] और मधुर रस [शक्कर इत्यादि] [रसना के] इन विषयों में आसक्त आत्मा लौहयन्त्र में और तन्तुजाल में फंसी हुई परवश बनी मछली की भांति मृत्यु पाती है। ॥४४॥ शयनासनसम्बाधनसुरतस्नानानुलेपनासक्तः । स्पर्शव्याकुलितमतिर्गजेन्द्र इव बध्यते मूढः ॥४५॥ अर्थ : शय्या, आसन, अंगमर्दन, चुंबन, आलिंगनादि, स्नान-विलेपन इत्यादि स्पर्श में आसक्त स्पर्श के सुख से मोहित बुद्धिवाला मूढ़ [जीव] हाथी की भांति बंध जाता है। ॥४५॥ एवमनेके दोषाः प्रणष्टशिष्टेष्टदृष्टिचेष्टानाम् । दुर्नियमितेन्द्रियाणां भवन्ति बाधाकरा बहुशः ॥४६॥ अर्थ : विवेकी पुरुषों को इष्ट ऐसे ज्ञान और क्रिया (उभय-दोनों) जिनके नष्ट हो चुके हैं और दोषों में दौड़ती इन्द्रियाँ जिनकी नियन्त्रित नहीं हैं, उनको इस भांति (और भी) अनेक दोष बार-बार पीडाकारी बनते हैं । ॥४६॥

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