Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 16
________________ प्रशमरति १५ अर्थ : [चार प्रकार से कर्मबन्ध में] प्रदेशबन्ध योग (मन-वचन-काया के) से होता है। उस प्रदेशबद्ध कर्म का अनुभव कषाय के वश होता है और स्थिति का पाक विशेष [जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट स्थिति का विशिष्ट निर्माण] लेश्या से होता है ॥३७॥ ताः कृष्णनीलकापोततैजसीपद्मशुक्लनामानः । श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः ॥३८॥ अर्थ : वे [लेश्याएँ] कृष्ण, नील, कापोत, तैजस, पद्म और शुक्ल नामक लेश्याएँ कर्मबन्ध में स्थिति का निर्माण करने वाली हैं, जैसे की रंगों को बांधने में गोंद ॥३८॥ कर्मोदयाद् भवगतिर्भवगतिमूला शरीरनिर्वृत्तिः। देहादिन्द्रियविषया विषयनिमित्ते च सुखदुःखे ॥३९॥ अर्थ : उस कर्म के विपाकोदय से नरकादि गतियाँ होती हैं और देहनिर्माण का बीज भी यही नरकादि भवगति है । उस देह से इन्द्रियों के विषय और विषनिमित्तक सुख और दुःख । [सुखानुभव एवं दुःखानुभव होता है ॥३९॥] दुःखद्विट् सुखलिप्सुर्मोहान्धत्वाददृष्टगुणदोषः। यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते ॥४०॥ अर्थ : दुःख का द्वेषी और सुख की लालसा वाला [जीव] मोहान्ध हो जाने से गुण या दोष नहीं देखता है, वो

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