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प्रशमरति यस्मिन्निन्द्रियविषये शुभमशुभं वा निवेशयति भावम् । रक्तो वा द्विष्टो वा स बन्धहेतुर्भवति तस्य ॥५४॥
अर्थ : इन्द्रियों के जिन विषयों में रागयुक्त या द्वेषयुक्त जीव शुभ या अशुभ चित्तपरिणाम स्थापित करता है उसको वह चित्तपरिणाम कर्मबन्ध का हेतु बनता है ॥५४॥ स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येवम् ॥५५॥
अर्थ : चिकनाहट [तैल इत्यादि की] से लिप्त व्यक्ति के गात्र में जैसे धूल चिपक जाती है वैसे ही राग और द्वेष से चिकनी [स्निग्ध] आत्मा में कर्म चिपकते हैं ॥५५॥ एवं रागो द्वेषो मोहो मिथ्यात्वमविरतिश्चैव । एभिः प्रमादयोगानुगैः समादीयते कर्म ॥५६॥
अर्थ : ऐसे राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद-योगों [मन, वचन काया के] का अनुसरण करता हुआ [जीव] कर्म ग्रहण करता है ॥५६॥ कर्ममयः संसारः संसारनिमित्तकं पुनर्दुःखम् । तस्माद्रागद्वेषादयस्तु भवसन्ततेर्मूलम् ॥५७॥
अर्थ : कर्म का विकार संसार है। संसार के कारण ही दुःख है । अतः राग-द्वेषादि ही भवपरंपरा, संसारयात्रा के मूल हैं । ऐसा सिद्ध होता है ॥५७॥