Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 19
________________ प्रशमरति एकैकविषयसङ्गाद् रागद्वेषातुरा विनष्टास्ते।। किं पुनरनियमितात्मा जीवः पञ्चेन्द्रियवशातः ? ॥४७॥ अर्थ : एक-एक विषय के संग में राग-द्वेष से रोगी बने [हिरन वगैरह] जीव नष्ट हो चुके तो फिर पाँचों इन्द्रियों को परवशता से जो व्याकुल हैं और जो आत्मा को नियमित नहीं रख पाते उनका क्या होगा ? ॥४७।। न हि सोऽस्तीन्द्रियविषयो येनाभ्यस्तेन नित्यतृषितानि । तृप्ति प्राप्नुयुरक्षाण्यनेकमार्गप्रलीनानि ॥४८॥ अर्थ : ऐसा कोई भी विषय नहीं है इन्द्रियों का, जिसका पुनः पुनः आसेवन करने से हमेशा प्यासी और अनेक मार्गों में [शब्दादि विषयजन्य अनेक प्रकारों में] खूब लीन बनी हुई इन्द्रियाँ तृप्ति पाएँ । ॥४८॥ कश्चिच्छुभोऽपि विषयः परिणामवशात्पुनर्भवत्यशुभः । कश्चिदशुभोऽपि भूत्वा कालेन पुनः शुभीभवति ॥४९॥ अर्थ : कोई इष्ट विषय भी अध्यवसाय के कारण (द्वेष के परिणामरूप) अनिष्ट बनता है और कोई अशुभ विषय भी कालान्तर से (राग के परिणाम) से इष्ट बनता है। ॥४९।। कारणवशेन यद्यत् प्रयोजनं जायते यथा यत्र । तेन तथा तं विषयं शुभमशुभं वा प्रकल्पयति ॥५०॥ अर्थ : जिन कारणों से जिस तरह जो जो प्रयोजन पैदा

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