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प्रशमरति
माध्यम से होने वाले कर्मबन्धनों से व्याप्त, (३) आर्तध्यान एवं रौद्र ध्यान की प्रकृष्ट अभिसन्धि [अभिप्राय] से युक्त ॥२०॥ कार्याकार्यविनिश्चयसंक्लेशविशुद्धिलक्षणैर्मूढः । आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञाकलिग्रस्तः ॥२१॥
अर्थ : (४) कार्य [जीवरक्षादि] अकार्य [जीववधादि] के निर्णय करने में तथा क्लिष्टचित्तता एवं निर्मलचित्तता का ज्ञान करने में मूढ़ (५) आहार-भय-मैथुन-परिग्रह रूप संज्ञाओं के परिग्रह से युक्त ॥२१॥ क्लिष्टाष्टकर्मबन्धनबद्धनिकाचितगुरुर्गतिशतेषु । जन्ममरणैरजस्त्रं बहुविधपरिवर्तनाभ्रान्तः ॥२२॥
अर्थ : (६) सैकड़ों गतियों में पुनः पुनः भ्रमण करने के कारण ८ कर्मों के गाढ़ बन्धनों से आबद्ध, निकाचित बना हुआ [अतिनियन्त्रित बना हुआ] एवं इनके कारण भारी बना हुआ, (७) सतत् जन्म-जरा-मरण से अनेक रूपों में परिवर्तन करने से भ्रान्त ॥२२॥ दुःखसहस्त्रनिरन्तरगुरुभाराक्रान्तकर्षितः करुणः । विषयसुखानुगततृषः कषायवक्तव्यतामेति ॥२३॥
अर्थ : (८) नारक, तिर्यंच-मनुष्य और देव के भवों में हमेशा हजारों दुःखों के अति भार से आक्रान्त [पीड़ित] होने