Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 13
________________ प्रमाणमीमांसा ९ तत्र निर्णयः संशयाऽनध्यवसायाविकल्पकत्वरहितं ज्ञानम् । ततो निर्णयपदेनाज्ञानरूपस्येन्द्रियसन्निकर्षादेः, ज्ञानरूपस्यापि संशयादेः प्रमाणत्वनिषेधः । १० अर्यतेऽर्थ्यते वा अर्थो हेयोपादेयोपेक्षणीयलक्षणः, हेयस्य हातुम्, उपादेयस्योपादातुम्, उपेक्षणीयस्योपेक्षितुमर्थ्यमानत्वात् । न चानुपादेयत्वादुपेक्षणीयो हेय एवान्तर्भवति; अहेयत्वादुपादेय एवान्तर्भावप्रसक्तेः । उपेक्षणीय एव च मूर्द्धाभिषिक्तोऽर्थः, योगिभिस्तस्यैवार्यमाणत्वात् । अस्मदादीनामपि हेयोपादेयाभ्यां भूयानेवोपेक्षणीयोऽर्थः; तन्नायमुपेक्षितुं क्षमः। अर्थस्य निर्णय इति कर्मणि षष्ठो,निर्णीयमानत्वेन व्याप्यत्वादर्थस्य । अर्थग्रहणं च स्वनिर्णयव्यवच्छेदार्थ तस्य सतोऽप्यलक्षणत्वादिति वक्ष्यामः। अनुमान में कोई उदाहरण न होने से बहिर्व्याप्ति-उदाहरण नहीं है, फिर भी हेतु अन्तर्व्याप्ति के सामर्थ्य से गमक है, इसी प्रकार 'प्रमाणत्व' हेतु भी गमक है । इस पर आगे विचार करेंगे। ९-संशय, अनध्यवसाय और निर्विकल्पकत्व१ से रहित ज्ञान निर्णय (निश्चयात्मक ज्ञान) कहलाता है । अतएब प्रमाण के लक्षण में स्वीकृत 'निर्णय' शब्द से अज्ञानरूप इन्द्रियसन्निकर्षर को तथा अनिश्चित ज्ञानरूप संशय आदि को प्रमाणता का निषेध किया गया है। १०-प्रयोजन की सिद्धि के लिए जिसकी चाह की जाती है, वह 'अर्थ' कहलाता है । अर्थ तीन प्रकार का है--(१) हेय-त्यागने योग्य (२) उपादेय-ग्रहण करने योग्य और (३) उपेक्षणीय-उपेक्षा करने योग्य । हेय पदार्थ को त्यागने की, उपादेय को ग्रहण करने की और उपेक्षणीय पर उपेक्षा करने की इच्छा की जाती है। किसी-किसी का कहना है कि उपेक्षणीय पदार्थ उपादेय न होने के कारण हेय के हो अन्तगत है, किन्तु यह कथन युक्त नहीं। वह हेय भी न होने से उपादेय के अन्तर्गत क्यों न माना जाय? वस्तुतः न हेय और न उपादेय होने के कारण उपेक्षणीय पदार्थ भिन्न ही है। उपेक्षणीय पदार्थ ही प्रमुख है, क्योंकि योगी जन उसको ही अभ्यर्थना-चाह करते हैं। हमारे लिये भी हेय और उपादेय पदार्थ. तो कम हैं, मगर उपेक्षणीय पदार्थ ही अधिक हैं। अतएव उपेक्षणीय पदार्थ की उपेक्षा करना उचित नहीं है अर्थात् उसे हेय की कोटि में सम्मिलित नहीं करना चाहिये। हेय, उपादेय और उपेक्षणीय अर्थ का निर्णय 'अर्थनिर्णय' कहलाता है । यहाँ 'कर्म' में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया है, क्योंकि अर्थ का व्याप्य कर्म है। सूत्र में 'अर्थ' शब्द का ग्रहण स्वनिर्णय का निराकरण करने के लिए है । यद्यपि प्रमाण स्वनिर्णायक होता है, तथापि वह प्रमाण का लक्षण नहीं है, इसे आगे कहेंगे। १- नाम, जाति आदि की कल्पना से रहित सत्तामात्र का ज्ञान निर्विकल्पक कहलाता है । २- इन्द्रिय और ग्राह्य विषय का सम्बन्ध ।

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