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इस्तेमाल कर ही रहे हो, वे कहेंगे, बस, रुक जाओ। लेकिन तुम पूछोगे, 'कैसे?' मन तो चलता ही रहता है। यदि तुम बैठ भी जाओ, तो भी मन सतत चलता है करो, तो भी मन अपनी गति करता ही जाता है।
'कैसे रुक जायें?' यदि तुम कुछ न
पतंजलि कहते हैं, बस, तुम देखो। मन को चलने दो, मन को करने दो, जो वह कर रहा है। तुम बस देखो कोई बाधा मत डालो मात्र साक्षी बन जाओ, दर्शक बन जाओ, असंबंधित जैसे मन तुम्हारा है ही नहीं, जैसे तुम्हारा उससे कुछ लेना-देना नहीं है, कोई नाता नहीं उससे संबंधित मत होओ। बस, देखो, और बहने दो मन को। वह बह रहा है तो अतीत के संवेग के कारण, क्योंकि तुमने हमेशा इसकी मदद की है बहने में। इसकी क्रियाशीलता ने अपनी एक गति बना ली है इसलिए यह बह रहा है। इसे बिलकुल सहयोग न दो। देखो, और मन को बहने दो।
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बहुत-बहुत जन्मों से हो सकता है लाखों जन्मों से तुमने इसे सहयोग दिया है, सहायता दी है, तुमने अपनी ऊर्जा दी है इसे। नदी कुछ समय तक बहेगी लेकिन यदि तुम सहयोग न दो, यदि तुम असंबंधित से बने रहो- जिसे बुद्ध ने कहा है उपेक्षा. बिना किसी संबद्धता के देखना; बस देखना किसी भी स्वप्न में कुछ न करना। ऐसे में मन कुछ देर बहेगा और फिर स्वयं ही थम जायेगा। जब संवेग चुक जाता है, जब ऊर्जा बह चुकी होती है, तब मन रुक जायेगा और जब मन रुक जाता है, तुम योग में उतरते हो। तुमने अनुशासन पा लिया है। यही परिभाषा है मन की समाप्ति योग है।'
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तब साक्षी स्वयं में स्थापित हो जाता है।
जब मन का होना समाप्त होता है, साक्षी स्वयं में स्थापित हो जाता है। जब तुम केवल देख सकी बिना मन के साथ तादात्म्य बनाये, बिना निर्णय किये, बिना प्रशंसा या आलोचना किये बिना चुनाव किये बस, केवल देखते रहो जबकि मन बह रहा हो, तो ऐसा क्षण आ जाता है। जब स्वयं ही मन रुक जाता है, थम जाता है।
जब मन नहीं है, तब तुम अपने साक्षी में प्रतिष्ठित हो जाते हो। तब तुम साक्षी बन गये - केवल देखने वाले एक द्रष्टा तब तुम कर्ता न रहे, विचारक न रहे। तब बस तुम हो- शुद्ध अस्तित्व, शुद्धतम अस्तित्व। तब साक्षी स्वयं में स्थापित हो गया ।
'अन्य अवस्थाओं में मन की वृतियों के साथ तादात्म्य बना रहता है।'
साक्षी के अतिरिक्त और दूसरी सभी अवस्थाओं में मन के साथ तुम्हारा तादात्म्य बना रहता तुम विचारों के प्रवाह के साथ एक हो जाते हो; एक हो जाते हो बादलों के साथ : कई बार सफेद
है।