Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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मूल प्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियों के स्थानों का निरूपण किया है कि प्रत्येक कर्म की कितनी-कितनी उत्तरप्रकृतियां एक साथ एक जीव को बंध, उदय और सत्ता में प्राप्त हो सकती हैं।
अनन्तर आयुकर्म के बंध, उदय और सत्ता के संवेध की प्ररूपणा की है। इसी तरह दर्शनावरण कर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधादि स्थानों, बंध और सत्ता स्थानों का काल प्रमाण बतलाकर उनके संवेध का विचार किया है । फिर गोत्र और वेदनीय कर्म के संवेध भंगों का विवेचन किया है । यह समग्र वर्णन आदि की अठारह गाथाओं में पूर्ण हुआ है। ___इस प्रकार सामान्य से छह कर्मों की उत्तरप्रकृतियों सम्बन्धी संवेध का विचार करने के बाद गाथा १६ से ४६ तक विस्तार से संसार के प्रमुख कारण मोहनीय कर्म के संबेध से सम्बन्धित बिन्दुओं की चर्चा की है। इसके लिए सर्वप्रथम मोहनीय कर्म के बंधस्थानों की संख्या, प्रकृतिभेद से बंधस्थानों के प्रकार, बंधस्थानों का काल प्रमाण बतलाकर फिर उदयस्थानों का वर्णन किया है और प्रत्येक गुणस्थान में सम्भव उदयस्थानों एवं उनसे सम्बन्धित भगों की चौबीसियाँ आदि को बतलाया है । यथाप्रसंग सम्बन्धित मतान्तरों का भी संकेत किया है फिर गुणस्यानों में मोहनीय कर्म के उदय (उदीरणा) विकल्पों को बतलाकर मोहनीय कर्म के उदयविच्छेदक गुणस्थानों का संकेत करके उदय सम्बन्धी वर्णन समाप्त किया है। इसी तरह सत्ता सम्बन्धी वर्णन करने के लिए सत्तास्थानों की संख्या बतलाकर गुणस्थानों में उन सत्तास्थानों की प्ररूपणा की है। यह सब वर्णन हो जाने के बाद संवेध का विचार किया है। अन्त में मोहनीय कर्म के सत्तास्थानों के अवस्थानकाल बतलाकर वक्तव्यता पूर्ण हुई है।
मोहनीय की तरह नामकर्म की विचारणा भी व्यापक है । अतएव प्रारम्भ में बंधादि स्थानों का सरलता से बोध कराने के लिए जिन प्रकृतियों के साथ नामकर्म की बहुत सी प्रकृतियाँ बंध अथवा उदय में प्राप्त होती हैं, उनके निर्देशक सूत्र का संकेत करके देवगति
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