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पञ्चसंग्रह
३-एस्थ एदेसिं चउण्हमुवकमाणं जहा संतकम्मपय डिपाहुडे परूविदं, तहा परूवेयध्वं । जहा महाबंधे परूविदं, तहा परूवणा एत्थ किष्ण कीरदे ? ण, तस्स पढमसमयबन्धम्मि चेव वावारादो।
(धवला क पत्र १२६७) ४-संतकम्मपाहुडके विषयमें स्वयं ही शंका उठाते हुए धवलाकार लिखते हैं
"पुणो एदेसि चउण्हं पि बन्धणोवकमाणं अस्थो जहा संतकम्मपाहुडम्मि उत्तो तहा वत्तव्वो ? संतकम्मपाहुडमिदि णाम कदमं? महाकम्मपयडिपाहुडस्स चउबीस-अणिओगहारेसु चउत्थ-छहम-सत्तमणियोगद्दाराणि दव्व-काल-भाव-विहाणणामधेयाणि । पुणो तहा महाकम्मपयडिपाहुडस्स पंचमो पयडिणामाहियारो । तत्थ चत्तारि अगियोगद्दाराणि अटकम्माणं पयडि-हिदि-अणुभाग-पदेससत्ताणि परूविय सूचिदुत्तरपयडिटिदिअणुभागपदेससत्तादो । एदाणि संतकम्मपाहुडं णाम ।
(धवला पुस्तक १५, पंजिका पृ० १८, परि०) ५-इसी बातको स्पष्ट करते हुए जयधवलामें भी लिखा है
"संतकम्ममहाहियारे कदि-वेदणादि चउवीसणियोगहारेसु पडिबद्धेसु उदओ णाम अस्थाहियादो हिदि अणुभाग-पदेसाणं पयडिसमणिण्णयाणमुक्कस्साणुक्कस्सजहण्णाजहण्णुदयपरूवणे य बाबारो।"
(जयधवला अ. ५१२) 'भवोपग्गहिया' पदकी व्याख्या करते हुए जयधवलाकार लिखते हैं-'संतकम्मपाहुडे वित्थारेण भणिदो।'
(जयप० मैनु० पृ० ६५८) ६-वर्गणा खण्डके पश्चात् धवलाकारने जिन १८ अनुयोगद्वारोंका वर्णन किया है उनके ऊपर किसी त आचार्य ने पंजिका नामक एक वृत्तिको रचा है। उसे रचते हुए वे कहते हैं-"पुणो तेहिंतो सेसट्टारसाणियोगद्दाराणि संतकम्मे सव्वाणि परविदाणि, तो वि तस्साइगंभीरत्तादो अत्थविसमपदाणमत्थे थोरुचेयण पंजियसरूरवेण भणिस्सामो।" (धवला पुस्तक १५, पृष्ठ १)
इन उल्लेखोंसे सिद्ध होता है कि महाकम्मपयडिपाहुडके जिन शेष १८ अनुयोगद्वारोंका पटखण्डागममें वर्णन नहीं किया जा सका उन्हीं के वर्णन करनेवाले मूलसूत्ररूप ग्रन्थका नाम सन्तकम्मपाहुड रहा है।
७-यह ग्रन्थ गद्य-सूत्रोंमें रहा, या पद्य-गाथाओंमें, यह एक प्रश्न पाठकोंके हृदय में सहज ही उत्पन्न ता है। धवला और जयधदलाके भीतर जितने भी उल्लेख मिलते हैं उनसे इस विषयपर कोई स्पष्ट प्रकाश नहीं पड़ता है। किन्तु सप्ततिकाचूर्णिमें दिये गये एक उल्लेखसे यह ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ गाथा-निबद्ध रहा है। वह उल्लेख इस प्रकार हैसन्तकम्मे भणियं-णिद्दादुगस्स उदओ खीणग खवगे परिचज ।
(सप्ततिका चूर्णि गाथा १) ऐसा प्रतीत होता है कि षट्खण्डागमके वेदना और वर्गणा खण्डमें जो सूत्रगाथाएँ पाई जाती है वे सम्भवतः इसी संतकम्मपाहुडकी रही है और उन्हें ही आधार बनाकर षट्खण्डागमकारने अपने जीवस्थान आदि अधिकारोंकी रचना की है।
८--धवला पुस्तक ६ के पृष्ठ १०९ पर वीरसेनाचार्य एक शंकाका उद्भावन कर उसका समाधान करते हुए लिखते हैं
'विगलिंदियाणं बंधो उदओ वि दुस्सरं चेव होदि त्ति ।' । अर्थात विकलेन्द्रियोंसे दुःस्वर प्रकृतिका ही बन्ध होता है और उसका ही उदय रहता है। जो भ्रमर आदिके स्वरको मधुर मानकर विकलेन्द्रिय जीवोंके सुस्वर नामकर्मके उदयका प्रतिपादन करते हैं, उनका मत ठीक नहीं है।
किन्तु चणिमें मंतकामपाहुडका जो उल्लेख आया है, उसमें गवलाकारके मतसे सर्वथा भित या प्रतिकुल ही मत पाया जाता है। वह उल्लेख इस प्रकार है
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