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प्रस्तावना
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९-श्वे० सणि सप्ततिकामें मुद्रित गा० २६, २७ न दि० सप्ततिकामें ही पाई जाती है और न सभाप्य सप्ततिकामें । यह बात विचारणीय है।
१०-दि० सप्ततिकामें गा० २९ 'तेरस णव चदु पण्णं' यह न तो श्वे० सप्ततिकामें पाई जाती है और न सभाष्य सप्ततिकामें ही। मेरे मतसे इसे मूल गाथा होनी चाहिए।
११---'सत्तेव अपज़्जत्ता' इत्यादि ३५ संख्यावाली गाथाके पश्चात् श्वे० और दि० सप्ततिकामें 'णाणंतराय तिविहमवि' इत्यादि तीन गाथाएं पाई जाती हैं किन्तु वे सभाप्य सप्ततिकामें नहीं। उनके स्थानपर अन्य ही तीन गाथाएँ पाई जाती हैं । जिनके आद्य चरण इस प्रकार है
णाणावरणे विग्घे (३३) व छक्कं चत्तारि य (३४) और उवरयबन्धे संते (३५)।
१२-श्वे० सचूणि सप्ततिकामें गा० ४५ के बाद 'बारस पण सट्ठसया' इत्यादि गाथा अन्तर्भाष्य गाथाके रूपमें दी है। साथमें उसकी चूणि भी दी है। यही गाथा दि० सप्ततिकामें भी सवृत्ति पाई जाती है। फिर इसे मूल गाथा क्यों नहीं माना जाय ?
१३-गा० ४५ दि० सप्ततिको और सभाष्य सप्ततिकामें पूर्वार्द्ध उत्तरार्द्ध व्युत्क्रमको लिये हुए है। पर ध्यान देनेकी बात यह है कि वह श्वे० सचूणि सप्ततिकाके साथ दि० सप्ततिकामें एक-सी पाई जाती है।
सत्कर्मप्राभृत संतकम्मपाहुड या सत्कर्मप्राभृत क्या वस्तु है यह प्रश्न अद्यावधि विचारणीय बना हुआ है । श्वे० ग्रन्थकारों और चर्णिकारोंने इनके नागका उल्लेख मात्र ही किया है। पर दि० ग्रन्थकारोंमें जयधवलाकारने बीसों वार संतकम्मपाहुडका उल्लेख किया है और अनेकों स्थलोंपर कसायपाहुड आदिके अभिप्रायोंसे उसकी विभिन्नताका भी निर्देश किया है। जिससे ज्ञात होता है कि धवला और जयधवलादिके रचे जानेके समय तक यह ग्रन्थ उपलब्ध था और सैद्धान्तिक-परम्परामें अपना विशिष्ट स्थान रखता था।
यहाँ हम कुछ अवतरण दे रहे हैं जिनसे सिद्ध है कि संतकम्मपाहुडका उपदेश कसायपाहडके उपदेशसे कितने ही विषयोंमें भिन्न रहा है
१-धवला पुस्तक १ पृ० २१७ पर नवम गुणस्थानमें सत्त्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली १६ और ८ प्रकृतियोंके मत-भेदका उल्लेख आया है। धवलाकार कहते हैं कि संतकम्मपाहुडके उपदेशानुसार पहले सोलह प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है और पीछे आठ प्रकृतियोंकी। पर कसायपाहुडका उपदेश है कि पहले आठ प्रकृतियोंकी व्युच्छि त्त होती है, पीछे सोलहकी। इस बातकी शंकाका उद्भावन करते हुए धवलाकार कहते हैं"एसो संतकम्मपाहुडउवएसो । कसायपाहुड उवएसो पुण” इत्यादि
(धवला पुस्तक १, पृ० २१७) २-पुनः शिष्य पूछता है कि इन दोनोंमेंसे किसे प्रमाण माना जाय ? संतकम्मपाहुड और कसायपाहड इन दोनोंको ही सूत्र रूपसे प्रामाणिक नहीं माना जा सकता है, इन दोनोंमेंसे कोई एक ही सूत्र रूपसे या जिनोक्त वचनरूपसे प्रमाण माना जा सकता है ? आयरियकहियाणं संतकम्म कसायपाहुडाणं कथं सुत्तत्तणमिदि चे ''इत्यादि
(धवला पुस्तक १, पृ० २२१) अन्तमें धवलाकार समाधान करते हुए लिखते हैं कि आज वर्तमानकालमें केवली या श्रुतकेवली नहीं है जिनसे कि उक्त मत-भेदमेंसे किसी एककी सच्चाई या सूत्रताका निर्णय किया जा सके। दोनों ही ग्रन्थ वीतराग आचार्योके द्वारा प्रणीत है, अतः दोनोंका ही संग्रह करना चाहिए।
धवलाकारके इस निर्णयसे दो बातें गट स्परो गिद्ध होती हैं-एक तो उनके सामने गंतकम्मपाहडके या उगके उपदेशके प्राप्त होनेकी और दुरारी बात सिद्ध होती है उसकी प्रामाणिकताकी ।
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