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प्रस्तावना
૨૬
"इह संज्ञिपश्चेन्द्रियव्यतिरिक्ताः शेषाः सर्वेऽपि संसारिणो जीवाः परमार्थतो नपुंसकाः। केवलमसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः स्त्री-पुंल्लिङ्गाकारमात्रमधिकृत्य स्त्रीवेदे [ पुरुषवेदे] च प्राप्यन्ते, इति तत्र यो वेदाः परिगृहीताः । चतुरिन्द्रियादीनां पुनर्याशस्त्रीपुंल्लिङ्गाकारमात्रमपि न विद्यते, तत इह नपुंसकवेद एव द्रष्टव्यः ।"
(श्वे. पञ्चसं० वृ० पृ० १८३२) इन सब उल्लेखोंको देखते हए यह सम्भव है कि चन्द्रषि महत्तरने अपनी इन मान्यताओंको प्रतिष्ठित करनेके लिए ही स्वतन्त्र रूपसे अपने पञ्चसंग्रहकी रचना की और मूलमें जिन बातोंका निर्देश नहीं किया जा सका उनके स्पष्टीकरणार्थ उसपर उन्होंने स्वोपज्ञ वृत्ति लिखी।
प्राकृत पञ्चसंग्रहके कुछ महत्त्वपूर्ण पाठ सम्यग्दृष्टि जीव मरकर कहाँ-कहाँ उत्पन्न नहीं होता, इस प्रश्नके उत्तरमें एक ही गाथाके तीन रूप तीन ग्रन्थोंमें पाये जाते हैं । यथा
१-छसु हेहिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण-सव्व-इत्थीसु।
वारस मिच्छावादे सम्माइटिस्स गस्थि उव्वादो ॥ (प्रा० पञ्चसंग्रह १, १९३) २-छसु हेट्ठिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण-सव-इत्थीम् ।
णेदेसु समुप्पजइ सम्माइट्ठी दु जो जीतो ॥ (धवला पुस्तक १, पृष्ठ २०६) ३-हेहिमछप्पुढवाणं जोइसि-वण-भवण-सव्व-इयाणं ।
पुण्णिदरे ण हि सम्मो, ण सासणो णारयापुण्ण ॥ (गो० जीव गाथा १२७) उक्त तीनों ही गाथाओंमें पूर्वार्द्धके प्रायः एक रहते हुए भी उत्तरार्धमें पाठ-भेद है। जिनमेंसे संख्या १ और २ की गाथाओंमें स्पष्टरूपसे एक ही बात बतलाई गयी है कि सम्यग्दष्टि जीव मरकर कहाँ-कहाँ उत्पन्न नहीं होता । फिर भी धवलाकी गाथाके पाठसे सम्यक्त्वीके एकेन्द्रियादि असंज्ञी पञ्चेन्द्रियान्त तिर्यञ्चोंमें उत्पादका निषेध-परक कोई पद नहीं है। यह एक कमी उस गाथामें रह गयी है, या पाई जाती है। पर यह गाथा धवलाकारने अपने कथनकी पुष्टिमें उधत किया है।
गो० जीवकाण्डकी गाथा उसके कर्ता द्वारा रची गयी है। यद्यपि उसका आधार पहली या दूसरी गाथा ही रही है। फिर भी उन्होंने उसे अपने ढंगसे वर्णन करते हुए स्वतन्त्र रूपसे ही रचा है और इसीलिए उत्तरार्धमें खासकर 'ण सासणो णारयापुणे' यह पद जोड़ा है। इस विशेषताके प्रतिपादन करनेपर भी उसके तीन चरणोंमें जो बात कही गयी है उससे सम्यक्त्वी जीवके एकेन्द्रियादि जीवोंमें उत्पन्न होनेका निषेध नहीं होता । यह एक कमी उसमें भी रह गयी है।
पर प्राकृत पञ्चसंग्रहका जो पाठ है वह अपने अर्थको सामस्त्यरूपसे प्रकट करता है और उसके 'वारस मिच्छावादे' पदके द्वारा उन सब तिर्य चोंका निषेध कर दिया गया है जिनमें कि बद्घायुष्क भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होता है । इस दृष्टि से प्रा० पञ्चसंग्रह की इस गाथाका यह पाठ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। आचार्य अमितगगतिने प्राकृत पञ्चसंग्रहका ही संस्कृत रूपान्तर किया है। उन्होंने उक्त गाथाका जो रूपान्तर किया है, वह इस प्रकार है
निकायत्रितये पूर्वे श्वभ्रभूमिपु षट्स्वधः ।
वनितासु समस्तासु सम्यग्दृष्टिन जायते ॥ (सं० पञ्चसंग्रह १, २६७) इस श्लोकको देखते हुए ऐसा ज्ञात होता है कि उनके सामने प्रा० पञ्चसंग्रहवाला पाठ न रहकर धवलावाला पाठ रहा है । अन्यथा यह सम्भव नहीं था कि वे इतनी बड़ी बात यों ही छोड़ जाते ।
दि० श्वे० शतकगत पाठभेद १-श्वे० शतकम 'तेरस चउसु' आदि १३ वें नम्बरको गाथा न दि० मूल शतक है और न प्राकृत सभाप्य शतको ही।
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