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और न्याय का ईश्वरवाद - - ये सब स्याद्वाद रत्नाकर के रत्न हैं ।
प्रमाण - मीमांसा सूत्र
आचार्य हेमचन्द्र सूरि की यह एक अमर कृति है। इसका विषय है प्रमाण शास्त्र । प्रमाण के अभाव में प्रमेय की सिद्धि कैसे हो सकती है । अतः स्वमत और परमत को समझने के लिए प्रमाण का परिज्ञान अनिवार्य है। यह प्रमाण ही प्रमाणमीमांसा ग्रन्थ का मुख्य विषय है ।
यह भी एक सूत्रात्मक ग्रन्थ है। प्रमाण-मीमांसा के सूत्र लघु, प्रशस्त, सरल और सुन्दर हैं। सूत्रों की संख्या भी बहुत कम है। आचार्य ने स्वयं सूत्रों पर वृत्ति की रचना की है । वृत्ति मध्यम परिमाण वाली है । वृत्ति की भाषा प्रसादपरिपूर्ण है । अध्याय पाँच और आह्निक दशा में विभक्त है, ग्रंथ । परन्तु दुर्भाग्य से पूर्ण ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है । काल कवलित हो चुका है । वृत्ति में प्रमाण से सम्बद्ध समस्त विषयों की परिचर्चा की है, आचार्य ने स्वयं । प्रमाण का लक्षण, प्रमाण के भेद, प्रमाण का विषय, प्रमाण का प्रामाण्य, प्रमाण का फल - इन समस्त विषयों पर आचार्य का पूर्ण अधिकार प्रतीत होता है । इन्द्रियों की ओर मन की बड़ी सुन्दर व्याख्या की है । केवलज्ञान, अवधिज्ञान और मतिज्ञान का स्वरूप बताया है। प्रमाता प्रमाण, प्रमेय, प्रमा और उसके फल की भी बहुत सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की है।
न्यायरत्नसार सूत्र
यह न्याय - शास्त्र का सूत्रात्मक ग्रन्थ है । इसके रचयिता स्थानकवासी समाज के प्रसिद्ध विद्वान् आचार्यप्रवर पूज्य घासीलालजी महाराज हैं। स्था नकवासी परम्परा का यह सूत्रात्मक प्रथम ग्रंथ है | सूत्रों की भाषा सरल है। सूत्रों में प्रसाद गुण की कमी नहीं है । ग्रन्थ छह अध्यायों में विभक्त है ।
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ग्रन्थ का विषय प्रमाण प्रमाण के भेद, प्रमाण का लक्षण, प्रमाण का फल और नय, सप्तभंगी, वाद, जल्प एवं वितण्डा आदि का स्वरूप भी बताया है । यह सूत्रात्मक कृति अति सुन्दर है ।
आचार्य ने स्वयं सूत्रों पर न्यायरत्नावली संस्कृत टीका लिखी और एक विस्तृत टीका भी लिखी है, जिसका नाम - स्याद्वाद मार्तण्ड है । ग्रन्थ रचना से पूर्व आचार्य के समक्ष प्रमाण - नय तत्त्वालोकालंकार सूत्र और उन व्याख्याओं का आदर्श अवश्य रहा है। मूल प्रेरणा और सामग्री का ग्रहण भी अधिकांश वहीं से किया है । व्याख्याओं का नाम भी ग्रन्थ के विषय के अनुकूल है। दो-चार स्थलों पर सम्प्रदाय का अभिनिवेश उभर कर आया है । जैसे कि सडोर मुखवस्त्रिका, केवली कवलाहार और स्त्री मुक्ति के सम्बन्ध में । प्रभाचन्द्र और वादिदेव सूरि का यह स्पष्ट हो प्रभाव है । वस्तुतः आज के युग में इन चर्चाओं की आबश्यकता ही नहीं है । ग्रन्थ की रचना सुन्दर है ।
ग्रन्थ का विषय परिचय
प्रथम अध्याय
प्रथम अध्याय में १३ सूत्र हैं । ग्रन्थ का मंगलाचार करते हुए कहा है- मैं चरम तीर्थंकर वर्धमान को और प्रथम गणधर गौतम को नमस्कार करके बाल जनों के उपकार के लिए न्यायरत्नसार" की रचना करता हूँ | मंगलाचरण करने के तीन प्रयोजन हैं
१. प्रारब्ध ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति २. शिष्टाचार का परिपालन
३. कृतज्ञता का प्रकाशन
ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य है- प्रमाण का लक्षण | क्योंकि प्रमेय की सिद्धि बिना प्रमाण के नहीं होती । पदार्थ का निर्णय प्रमाण से ही हो सकता है । प्रमाण का लक्षण एक नहीं है । क्योंकि सबका
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