Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 17
________________ विशेष । जिस स्थान पर घट है, उस स्थान की सत्त्व धर्म का प्रतिपादन करना, नय वचन का अपेक्षा से वह सत् है। अन्य स्थानों को अपेक्षा से पहला रूप है । असत्त्व धर्म का प्रतिपादन करना, वह असत् है । जिस समय घट है, उस समय की नय वचन का दूसरा रूप है। उभय धर्मों का क्रमशः अपेक्षा से वह सत् है । उस समय से भिन्न समय प्रतिपादन करना, नय बचन का तीसरा रूप है। की अपेक्षा से वह असत् है । भाव का अर्थ है-- उभय धर्मों का युगपत् प्रतिपादन करना, असम्भव पर्याय अथवा आकार विशेष । जिस आकार या है। अतः नयवचन का चतुर्थ रूप अवक्तव्य बनता पर्याय का घट है, उसकी अपेक्षा से वह सत् है। है । नय वचन के पाँचबे, छठे और सातवें रूपों को तद्भिन्न आकार एवं पर्याय की अपेक्षा से वह असत् प्रमाण वचन के पांचवें, छठे और सातवें रूपों के है अतः स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की समान समझ लेना चाहिए । जैन दर्शन में नय वचन अपेक्षा से घट है। परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और के इन सात रूपों को नय सप्तभंगी कहा गया है । परभाव की अपेक्षा से घट नहीं है। इस प्रकार अनेकान्तवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, सप्तभंगीवाद और स्याद्वाद-जैन दर्शन के प्रमाण सप्तभंगी विशिष्ट सिद्धान्त हैं। सत्त्व और असत्त्व इन दो धर्मों में से सत्त्वमुखेन वस्तु का प्रतिपादन करना, प्रमाण वचन का पहला धारावाहिक जाग रूप है। असत्त्वमुखेन वस्तु का प्रतिपादन करना, प्रमाण बचन का दूसरा रूप है । सत्त्व और अमत्त्व उभय धर्म मुग्वन क्रमशः वस्तु का प्रतिपादन करना, न्याय, वैशेषिक और मीमांसक-धारावाहित प्रमाण बचन का तीसरा रुप है । सत्त्व और असत्व ज्ञानों को प्रमाण मानते हैं। अतः ये गृहीतग्राही उभय धर्म मुखेन युगपत् वस्तु को प्रतिपादन करना होने पर भी प्रमाण ही हैं। बौद्ध दार्शनिक उसे असम्भव है। इसलिए प्रमाण वचन का यह चतुर्थ शमण मानते रहे हैं। जैन परम्परा के श्वेताम्बर रूप अवक्तव्य है। उभयमुखेन युगपत् वस्तु के दार्शनिक धारावाहिक ज्ञानों को प्रायः प्रमाण हो प्रतिपादन की असम्भवता के साथ-साथ सत्त्वमुखेन मानते हैं, उन्हें अप्रमाण नहीं कहा है। लेकिन वस्तु वा प्रतिपादन हो सकता है। यह प्रमाण वचन दिगम्बर आचार्य प्राय: उरी अप्रभाण ही मानते चले का पंचवां रूप है। उभयमुखेन युगपत् वस्तु के याये। अतः दिगम्बरों का प्रमाण लक्षण भी प्रतिशदन की असम्भवता के साथ साथ असत्त्व- श्वेताम्बराचार्यों से भिन्न प्रकार का हो रहा है। मुखेन भी वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है। यह परन्तु समस्त जैनाचार्य स्मरण रूप परोक्ष प्रमाण प्रमाण वचन का छठा रूप बन जाता है । उभय को एवं स्मृति को प्रमाण ही मानते हैं, अप्रमाण धर्ममुखेन युगपत् वस्तु के प्रतिपादन की असम्भवता नहीं मानते । न्याय और वैशेषिक स्मृति को प्रमाण के साथ-साथ उभय धर्म मुखेन क्रमशः वस्तु का मानते हैं । आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने अपनी प्रमाण प्रतिपादन हो सकता है। यह प्रमाण वचन का मामा में धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण सिद्ध किया सातवाँ रूप बन जाता है । जैन दर्शन में इसको है। इस प्रकार दार्शनिक एवं तार्किक विद्वानों में कुछ प्रमाण सप्तभंगी नाम दिया गया है। प्रमाण सप्त- स्थलों पर गम्भीर विचार-भेद भो रहा है, और भंगी प्रसिद्ध है। कहीं पर सहमति भी रही है। भारतीय दर्शन में नय सप्तभंगी प्रमाण की चर्चा ने काफी गम्भीर रूप ग्रहण किया वस्तु के सत्व और असत्त्व इन दो धर्मों में से है ! ( २६ )

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