Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 15
________________ शब्दों का अनेक स्थानों पर प्रयोग किया गया है। करके वस्तु का वर्णन करना। एक गुण में अशेष दोनों ही शब्द जैन-दर्शन में अपना विशिष्ट स्थान वस्तु का संग्रह करना सकलादेश है। यह कथन रखते हैं। जैन दर्शन के मर्म को समझने के लिए आचार्य अकलंक का है। उन्होंने तत्त्वार्थ राजवाअत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण शब्द हैं। विभज्यवाद का तिक में कहा--"एक गुणमुखेन शेष वस्तुरूप संग्रप्रयोग तो बौद्ध पिटक मज्झिम निकाय में भी हुआ हात् सकलादेशः।" है । भगवान् बुद्ध ने अपने आपको विभज्यवादी विकलादेश में, एक धर्म की ही अपेक्षा रहती कहा है एकांशवादी नहीं। जैन परम्परा के सूत्र- है और शेष की अपेक्षा। जिस धर्म का कथन अभीष्ट कृतांग सूत्र में, इसी शब्द का प्रयोग किया है। होता है, वही धर्म दृष्टि के सामने रहता है। अन्य भिक्षु को कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए, धर्मों का निषेध नहीं होता, अपितु उस समय प्रयोइस सम्बन्ध में कहा गया है कि विभज्यवाद का जन न होने से उनका ग्रहण नहीं होता। यही प्रयोग करें। जैन दर्शन में इस शब्द का प्रयोग उपेक्षाभाव है, लेकिन यह निषेध नहीं है । निषेध में अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद के अर्थ में किया गया संघर्ष है। वह नहीं, एकान्तवाद हो है। जिस अपेक्षा से जिस प्रश्न का उत्तर दिया जा जाता है। सप्तभंगी को समझने में सकलादेश और सकता हो, उस अपेक्षा से उसका उत्तर देना ही विकलादेश का बड़ा महत्त्व है। स्याद्वाद है । अतः अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, विभज्य- सकलादेश के आधार पर जो सप्तभंगी बनती वाद और अपेक्षावाद समानार्थक शब्द हैं। है, उसे प्रमाण सप्तभंगी कहते हैं। विकलादेश के भगवती सूत्र में महावीर और जयन्ती का आधार पर जो सप्तभंगी बनती है, वह नय सप्तसंवाद, महावीर और गौतम के संवाद तथा महा- भंगी है । इसका अर्थ है कि नय का कथन विकलावीर और तापसों के संवाद --यह सिद्ध करते हैं कि देश और प्रमाण का कथन है, सकलादेश । सकल भगवान महावीर अनेकान्त और स्याद्वाद सिद्धान्त का अर्थ है, सम्पूर्ण । विकल का अर्थ है-अंधा; अंशा के प्रतिपादक थे। किसी भी प्रश्न का उत्तर के कथन । कथन की ये दो पद्धतियाँ हैं । एक में शेष का एकान्तवाद से नहीं देते थे, अनेकान्तबाद से ही अभेद करके कथन करना, और भेद करके अंश-अंश दिया करते थे । उनकी दृष्टि में सत्-उत्पाद, पय कथन करना । और ध्रुवत्वभाव से संयुक्त था। गणधर गौतम को सप्तभंगों का कथन भी उन्होंने यही दृष्टि प्रदान की थी, जिसके आधार आचार्य अकलंक ने तत्त्वार्थ राजघातिक में पर गणधर ने चतुर्दश पूर्वो की संरचना की थी। कहा है कि "प्रश्नवशाद एकस्मिन् वस्तुनि अविरोजैन दर्शन का यह मूल है। धेन विधि-प्रतिशेष विकल्पना सप्तभंगी।" एक जैन दर्शन में सप्तभंगी वस्तु में अविरोधपूर्वक विधि और प्रतिषेध को वस्तु में अनेक धर्म हैं। किसी एक धर्म का विकल्पमा सप्तभंगी है। जब हम अस्तित्व का कथन किसी एक शब्द से होता है । यह सम्भव प्रतिपादन करते हैं, तब नास्तित्व भी निषेध रूप से नहीं कि अनकान्तात्मक वस्तु के सभी धर्मों का हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। जब हम सत् वर्णन कर सकें । क्योंकि एक वस्तु के सम्पूर्ण वर्णन का प्रतिपादन करते हैं, तब असत् भी सामने आ का अर्थ है-सभी घस्तुओं का सम्पर्ण वर्णन । अतः जाता है। किसी भी वस्तु के बिधि और निषेध रूप वस्तु का कथन करने के लिए दो दृष्टियां है- दो पक्ष वाले धर्म को बिना विरोध के प्रतिपादन सकलादेश और विकलादेश । सकलादेश का अर्थ करने से जो साप्त प्रकार के विकल्प उठते हैं, वहीं है--किसी एक धर्म के साथ अन्य धर्मों का अभेद सप्तभंगी है । विधि और निषेधरूप धर्म का वस्तु में

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