Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 14
________________ संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और भेद मानता है। एवंभूत का विषय समभिरूढ़ एवंभूत । आगम और दिगम्बर ग्रन्थ इस परम्परा से कम है, क्योंकि वह अर्थ को भी तभी उस शब्द का समर्थन करते हैं। दूसरी परम्परा नयों के छह द्वारा वाच्य मानता है, जब अर्थ अपनी व्युत्पत्तिभेद मानती है । इस परम्परा के अनुसार नैगम नय मुलक क्रिया में पूर्णतया संलग्न रहता हो । स्वतन्त्र नय नहीं है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने अतः यह स्पष्ट है, कि पूर्व-पूर्व नय की अपेक्षा स्वरचित सन्मति तक ग्रन्थ में इस मान्यता की उत्तर-उत्तर नय का विषय सूक्ष्म, सूक्ष्मतर तया जोरदार स्थापना की है। उनकी यह अपनी ही सूक्ष्मतम होता जाता है। इसी आधार पर नयों परिकल्पना है । अन्यत्र कहीं पर भी इस मान्यता में पूर्वापर सम्बन्ध है। यही पारस्परिक सम्बन्ध का उल्लेख नहीं है । न आगमों में और न श्वेता- है। म्बर-दिगम्बर साहित्य में । तीसरी परम्परा तत्वार्थ सामान्य और विशेष मुत्र और उसके भाष्य की है। इस परम्परा के जैन दर्शन में, सामान्य और विशेष के आधार अनुसार मूलरूप में नयों के पांच भेद हैं--नगम, पर, नयों का द्रव्यार्थिक और पर्यायाधिक में संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द । इनमें से विभाजन किया गया है। पहले के तीन नय प्रथम नैगमनय के दो भेद हैं- देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षपी। अन्तिम शब्द नय के तीन भेद हैं सामान्यग्राही हैं। बाद के चार नय विशेषग्राही हैं । जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु सामान्यसाम्प्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत । नयों की संख्या विशेषात्मक होती है । उसमें अभेद के कारण सामान्य और स्वरूप के सम्बन्ध में काफी मतभेद रहे हैं। भी है, और भेद के कारण विशेष भो है। बस्तुगत लेकिन नयों की राप्त संख्या के विषय में किसी ये दोनों धर्म, उसके अविभाज्य अंश अथवा अंग प्रकार के मतभेद नहीं रहे हैं । जैनदर्शन में सप्तनय हैं । अतः वस्तु का एकान्त रूप में कथन नहीं और सप्तभंग प्रसिद्ध हैं। विया जा सकता 1 क्योंकि अनेक धर्मों का समूह नयों का परस्पर सम्बन्ध है-वस्तु । नय बस्तु के एक-एक धर्म को ग्रहण उत्तर नय का विषय, पूर्व नय की अपेक्षा कम करता है, और प्रमाण वस्तु को समग्न रूप में ग्रहण होता जाता है । नेगम नय का विषय राबसे अधिक करता है। नय और प्रमाण में यही अन्तर है। है क्योंकि वह सामान्य और विशेष अथवा भेद अभेट और भेद और अभेद, दोनों को ग्रहण करता है। संग्रह नय का विषय नैगम नय से कम हो जाता है, क्योंकि जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु में अभेद और भेद को वह केवल सामान्य को अथवा अभेद को हो ग्रहण स्वीकार करता है । वस्तु न एकान्त भिन्न और न करता है। व्यवहार का विषय संग्रह से कम है, एकान्त अभिन्न ही है। द्रव्य दृष्टि से अभेद और क्योंकि पथक्करण करता है। ऋजसन का व्यव- पर्यायदृष्टि से भेद भी है । वस्तु नित्य भी है, वस्त हार से कम है, क्योंकि ऋजसत्र नय केवल अनित्य भी है । वस्तु एक भी है, बस्तु अनेक वनमान पदार्थ तक ही सीमित रहता है । भूतकाल भी है । वस्तु सत् भी है, बस्तु असत् भी है। और अनागत काल उसका विषय नहीं होता है ? भगवान महावीर की यही तो अनेकान्त दृष्टि है । शब्द का विषय ऋज सूत्र से भी कम है, क्योंकि इसी की व्याख्या है-नयवाद । इसी की व्याख्या वह काल, कारक, लिंग और संख्या आदि के भेद है-स्याद्वाद। से अर्थभेद मानता है। समभिरूढ़ का विषय स्याद्वाद और सप्तभंगी शब्द से कम है, क्योंकि वह व्युत्पत्तिभेद से अर्थ- जैन आगमों में स्याद्वाद और विभज्यवाद ( २३ )

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