Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सत्यपरिण्णा लोगो विजओ य सीओसणिज्ज सम्मत्तं । आवंति धुयविमोहो उवहाणसुय महापरिण्णा य ।। पिंडेसणसिज्जिरिया भासज्जाया य वत्थपाएसा । उग्गहपडिमा सत्तेक्कतयं भावणविमुत्तीओ ॥ उग्घायमणुग्घायं आरूवणा तिविहमो णिसीहं तु ।
इय अट्ठावीसविहो आचारपकप्पणामोऽयं ।।'
आयारो एवं निसीहज्झयणं के सम्बन्ध का उल्लेख आचारांगनिर्युक्ति में भी मिलता है। निर्युक्तिकार ने आयारो तथा आयारचूला के साथ इसकी संयुक्त निर्युक्ति की रचना कर इनकी एकात्मकता जोड़ दी। इससे प्रतीत होता है कि निशीथ की आचारांग चूला के रूप में स्थापना नंदी और नियुक्ति की रचना के मध्यकाल में हुई थी।
आयारो तथा उसकी प्रथम चार चूलाएं दीक्षा पर्याय के अनन्तर क्रमशः पढ़ी जाती थी। प्राचीन काल में जब तक दसवे आलियं की रचना नहीं हुई थी, तब तक उपस्थापना के लिए शस्त्र परिज्ञा' एवं पिण्डेषणाकल्पिक होने के लिए पिण्डेषणा के सूत्रार्थ' का ज्ञान कराया जाता था किन्तु आचारप्रकल्प का अध्ययन करने के लिए कम से कम तीन वर्ष का दीक्षा पर्याय आवश्यक माना गया। तीन वर्ष की दीक्षापर्याय के बाद भी यदि वह अल्पवयस्क और अपरिपक्वबुद्धि है तो प्रस्तुत आगम के लिए अनर्ह होता है ।
आयारो एवं निसीहज्झयणं के सम्बन्ध विषयक विमर्श से तीन प्रश्न उपस्थित होते हैं
१. निसीहज्झयणं को आयारो के साथ ही क्यों जोड़ा गया ।
२. यदि निसीहज्झयणं को आयारो की पांचवीं चूला मान ही लिया गया तो पुनः इसे पृथक् क्यों किया गया ?
३. यदि प्रस्तुत आगम आयारो की चूला है तो इसे चूलिकासूत्रों में न रखकर छेदसूत्रों के वर्गीकरण में क्यों रखा गया ?
प्रस्तुत आगम का निर्यूहण नवम पूर्व के आचार प्राभृत नामक वस्तु से हुआ है। इसका विषय भी आचार से संबद्ध है। जिन-जिन पदों का आधारचूला में निषेध किया गया है, उनका प्रस्तुत आगम में प्रायश्चित्त बतलाया गया है आयारचूला प्रतिषेध सूत्र है और प्रस्तुत आगम प्रायश्चित्त सूत्र । अतः विषय साम्य की दृष्टि से इसका सम्बन्ध आयारो से जोड़ा गया । निसीहज्झयणं का एक नाम आयार भी है। जो उसकी आयारो से सम्बन्ध योजना का निमित्त हो सकता है। आचारांग नियुक्ति का 'हवइ सपंचचूलो' तथा निशीथचूर्णि का 'पकप्पो आयारगतो'' वाक्यांश भी इसी ओर संकेत करता हैं।
आयारो की पांच चूलाएं हैं फिर एक इसी चूला को आयारो से पृथक क्यों किया गया ? आयारो तथा उसकी प्रथम चार चूलाओं के लिए न दीक्षा पर्याय की सीमा है, न जन्म पर्याय की । आचार का ज्ञान प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आवश्यक है। अतः प्रव्रज्या के अनन्तर चरणकरणानुयोग के प्रथम अंग के रूप में आयारो एवं आयारचूला का अध्ययन कराया जाता है। प्रस्तुत आगम तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले, वयस्क एवं परिणामक भिक्षु को ही पढ़ाया जा सकता है। अयोग्य एवं अनधिकारी को दिया गया ज्ञान दुरुपयोग का निमित्त बन सकता है। अतः अध्ययन की मर्यादा के कारण इसका पृथक्करण अनिवार्य हो गया होगा ।
दसाओ, कप्पो एवं ववहारो - ये तीनों छेदसूत्र प्रत्याख्यान पूर्व से निर्यूढ हैं।' प्रस्तुत आगम भी उसी प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय आचार वस्तु के बीसवें प्राभृत से निर्यूड है तथा शेष छेदसूत्रों के साथ इसकी आचार विषयक प्रतिपाद्य की समानता के कारण इसे छेदसूत्रों में परिगणित किया गया। आगमों के प्राचीन वर्गीकरण में छेदसूत्र नाम का कोई पृथक् वर्ग नहीं था। जैसे-जैसे श्रमण संघ में
१.
आव हारि. वृत्ति २ पृ. ११३
२. आनि ११ - हवइ सपंचचूलो ।
३. वही, २९७
जावोम्गहपडिमाओ पढमा सत्तिक्कगा बिइअचूला ।
भावणाविमुत्ति आयारपकप्प तिन्नि इअ पंच ॥
४. निभा. ३ पृ. २८०
५. व्यभा. ४ गा. १७४-१७६
६.
निभा १ चू. पृ. ३
७.
वही, भा. ४ चू. पृ. २५४
८.
दशाचू. पृ. २- कतरं सुत्तं ? दसाउ कप्पो ववहारो य । कतरातो उद्धृतं ? उच्यते-पच्चक्खाणपुवाओ।