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उनकी भाषा सभी भाषाओं का रूप धारण करके श्रोता तक पहुंच जाया करती है।
'अरिहन्त' सर्व-जन-हितकारी होते है, अत: वे अपनी दिव्य शक्ति से सभी को रूपान्तरित करके धर्म-मार्ग का पथिक बनाने के लिये सर्वत्र विहरणशील रहते है, इसीलिये वेद का ऋषि भी 'चरैवेति' 'चरैवेति' का गान करते हुए विहरणशील रहने का आदेश देते है । भुत और मन्त्र :
मन्त्र अक्षर समूह है और अक्षर ध्वन्यात्मक होता है, ध्वनि के उच्चारण की एक विशिष्ट पद्धति होती है, जिससे वह शरीर के विभिन्न संस्थानों को जिन्हें योग-साधना की भाषा मे चक्र कहा जाता है उन्हें विशिष्ट रूपों में प्रभावित कर सके । जैन-संस्कृति किसी ईश्वर पर भरोसा नही रखती, उसे विश्वास है अपने आत्मबल पर । यह आत्मबल विशिष्ट रूप से उच्चरित अक्षर-उच्चारण पर निर्भर होता है, अतएव प्रागमों को श्रुत-रूप मे ही रखने का आग्रह किया जाता था, क्योंकि लिखित ध्वनि-संकेतों को लोग उस रूप में उच्चरित नही कर सकते जो उसके उच्चारण की विशिष्ट पद्धति है । यही कारण है कि गुरु-मन्त्र कान मे सुनाए जाते थेअर्थात् गुरु शिष्य के कान मे मन्त्र का उच्चारण ऐसी विशिष्ट ध्वनि-संचारण की प्रक्रिया के साथ करता था जिससे वह उच्चारण की प्रक्रिया को ठीक प्रकार से समझ सके ।
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