Book Title: Meri Golwad Yatra
Author(s): Vidyavijay
Publisher: Devchandji Pukhrajji Sanghvi

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Page 19
________________ १४ है - यही धर्मभ्रष्टता है, कर्त्तव्योन्मुखता है, मूढ़ता है, इससे मोह का पारावार अनन्त बढ़ जाता है, माया छा जाती है, कषाय-क्लेश घर कर लेते हैं और हम अपना यात्रीपन विस्मृत कर जाते हैं । इसको ही हम परिग्रह कहते हैं । परन्तु फिर भी हमारी आत्माओं में कभी कभी यात्रा करने के भाव जाग्रत हो जाते हैं और उनका लक्ष्य केवल मोटे मोटे प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों के दर्शन, स्पर्शन करने मात्र का होता है । जितना बने उतना भी जीवन में उत्तम है । भविष्यवेत्ताओंने, हमारे महोपकारकोंने, तीर्थङ्करोंने हमारे इसी मोटे ध्येय के पूर्ण करने के लिये तथा उसे उपयोगी एवं अभिलषित फलदायक बनाने के लिये तीर्थों की स्थापना की और करवाई और इस प्रकार तीर्थयात्रा की क्रिया एवं आत्मा को जीवित एवं पुष्ट रक्खा । यह मानी हुई बात है कि हम जब यात्रा के लिये घर से निकलते हैं, उस समय हमारे मन, भाव, वचन कुछ दूसरे ही रंग ढंग में हो जाते हैं जो थोड़े बहुत हमारे आत्मा सत्यधर्म (स्वभाव) से मेल खाते हैं । घर में जहाँ हमारे में कषाय, के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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